आपदा के चार साल बाद यह मनन करने की आवश्यकता है कि केदारनाथ त्रासदी से हमने क्या सबक सीखा। कुदरत को जीतना संभव नहीं, लेकिन प्रभाव को सीमित किया जा सकता है।
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केदारनाथ त्रासदी को चार साल बीत चुके हैं। इस अरसे में काफी कुछ बदल गया। वर्ष 2014 में किसी तरह यात्रा शुरू हुई और इस सीजन में अब तक बदरीनाथ और केदारनाथ में रिकार्ड यात्री पहुंच चुके हैं। यात्रियों का उत्साह देखकर कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में यह तादाद बढ़ती ही जाएगी। गंगोत्री और यमुनोत्री में भी यही स्थिति है। यात्रा पूरी तरह पटरी पर आ चुकी है, इसे लेकर सरकारें पीठ थपथपा सकती हैं। बावजूद इसके दूसरे पहलूओं पर भी गौर किया जाना जरूरी है। मसलन, केदारघाटी के साथ ही उत्तरकाशी, टिहरी, अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जिलों के प्रभावित गांवों में कितना बदलाव आया। केदारघाटी की बात करें तो देवलीभणि ग्राम इसका अच्छा उदाहरण हो सकता है। आपदा में इस गांव में दो दर्जन से ज्यादा परिवारों ने अपने कमाऊ लाल को खो दिया। सामाजिक संस्थाओं के सहयोग से ये परिवार किसी तरह खुद की आजीविका चला पा रहे हैं। बातचीत में वे यह कहने से नहीं हिचकते कि उनका मझधार में छोड़ दिया गया। सवाल इससे भी बड़ा है कि क्या खतरा टल गया है। आपदा के बाद उन गांवों के चिह्नीकरण की कसरत तेज की गई थी जहां भूस्खलन का खतरा दर पर दस्तक दे रहा था। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए वैसे-वैसे विस्थापन की उम्मीदें भी दम तोडऩे लगीं। बीते चार साल में कितने गांवों को विस्थापित किया जा सकता शायद ही प्रशासन इसका जवाब दे सके। चमोली हो या चंपावत, गढ़वाल से लेकर कुमाऊं तक चौमासे में आशंका के बादल मंडराने लगते हैं। प्रश्न यह भी है कि केदारनाथ आपदा से हमने क्या सबक सीखा। उस वक्त दिखा मंदाकिनी का रौद्र रूप आज भी यादों में ताजा है, लेकिन वक्त बीतने के साथ हम भूल गए कि नदी अपना हक कभी नहीं छोड़ती। तब सबसे ज्यादा नुकसान नदियों के किनारे रहने वाले लोगों ने ही उठाया था। अब एक बार फिर नदियों के तट पर बसेरे बसने लगे हैं। सरकारी मशीनरी एक बार फिर बेफिक्री के दौर में है। टीस के साथ जख्मों को सहला रहे हाथ ही नदियों के तट पर अतिक्रमण करने से बाज नहीं आ रहे। यह सही है कि केंद्र सरकार ने ऑल वेदर रोड के जरिये चार धाम यात्रा को सुगम और सुरक्षित बनाने की योजना बनाई है, लेकिन इसे धरातल पर उतरने में समय लगेगा। ऐसे में भूस्खलन जोन में सड़कों पर सुरक्षित सफर के लिए तात्कालिक उपाय की जरूरत है। कहने की जरूरत नहीं कि कुदरत के कोप को रोकना भले ही संभव न हो, उसके प्रभाव को तो कम किया ही जा सकता है। अब इसी दिशा में काम करने की आवश्यकता है।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]