उत्तराखंड में सरकारी महकमों की कथनी और करनी में अंतर साफ दिखता है। खासकर, महकमों के बीच तालमेल के मामले में। यह दीगर बात है कि इस सच्चाई को स्वीकारने की हिम्मत कोई नहीं दिखा पा रहा है।
--------------
उत्तराखंड में सरकार के दावों का सच धरातल से दूर है। यह भी कह सकते हैं कि दावों की हवा उसी की मशीनरी निकाल रही है। यह महज आरोप नहीं, बल्कि सरकारी कामकाज की असलियत है। बात महकमों के बीच तालमेल की हो या फिर एक दूसरे को सहयोग करने की, दोनों में ही नीति और नीयत साफ नजर नहीं आती हैं। कहने में हिचक नहीं कि सोलह सालों बाद भी तंत्र 'अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग' वाले अंदाज से बाहर नहीं निकल पाया है। अमृत योजना को इसकी ताजा मिसाल माना जा सकता है। सत्ताईस सौ करोड़ की इस योजना के अंतर्गत देहरादून, रुड़की, नैनीताल और ऊधमसिंहनगर समेत सात शहरों में पेयजल, सीवरेज, ड्रेनेज और पार्कों का सुंदरीकरण होना है। सुर्खियां बटोरने के लिए राज्य सरकार ने इस योजना को प्रचारित करने का कोई मौका नहीं गंवाया। लोगों को सपना दिखाया कि यह योजना शहर की सूरत ही बदल देगी। इसके बाद शहरवासियों की बुनियादी दिक्कतें खुद-ब-खुद खत्म हो जाएंगी। लेकिन, योजना पर अमल बात आई तो वही नजर आया वही पारंपरिक रवैया। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अमृत योजना से जुड़े विभागों को यह पता ही नहीं कि कौन क्या कर रहा है। अस्थायी राजधानी की योजनाओं के मुद्दे पर महापौर ने बैठक बुलाई तो पता चला कि पेयजल निगम और जल संस्थान ने उन क्षेत्रों के लिए योजनाएं तैयार कर डालीं, जहां पहले ही योजना स्वीकृत हैं। कुछ पर तो काम भी शुरू हो गया है। यानि सब कुछ वातानुकूलित कमरों में बैठकर कर दिया गया। तालमेल की कमी का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। यह स्थिति तो राजधानी की हैं, जहां नीति निर्धारकों के साथ ही कार्यान्वयन तंत्र बैठता है। राज्य के दुर्गम इलाकों में क्या हो रहा होगा, सहज ही समझा जा सकता है। कमोबेश यही स्थिति विकास कार्यों से जुड़ी बाकी योजनाओं की भी है। विभागों में सामंजस्य न होने की वजह से न केवल योजनाओं में देरी का कारण बन रहा है, बल्कि इससे बजट की बर्बादी हो रही है। योजनाओं में पेच फंसने की शिकायतें भी बढ़ रही हैं। चिंताजनक पहलू यह कि राज्य सरकार इस और बेफिक्र बनी हुई है। परिदृश्य पर नजर दौड़ाने से आभास ही नहीं होता कि सरकारी तंत्र कड़वे अनुभवों से सीख ले रहा है। विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में इस तरह की कार्यसंस्कृति को सही नहीं कहा जा सकता। यह नहीं भूलना होगा कि बुनियादी विकास की उम्मीद को लेकर अलग उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ है, अगर यही धूमिल पड़ गई तो सरकारें ही कठघरे में खड़ी नजर आएंगी।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]