जैसे विलंब से किया गया न्याय बहुत हद तक न्याय नहीं होता, कुछ वैसे ही भीड़ का इंसाफ अक्सर इंसाफ नहीं होता। राजधानी रांची के निकट कांके और जमशेदपुर की ताजा घटनाओं के अलावा पूर्व में अनेकानेक बार पेश आई यह सूरत सच्चाई बयान करती है। किसी घटना-दुर्घटना या अफवाह पर जमा हुई भीड़ अनियंत्रित रहती है, जिसमें शरारती तत्वों की ज्यादा चलती है। असंवैधानिक कदम उठाते हुए ऐसे ही तत्व उत्पात की शुरुआत करते हैं, जिसमें भीड़तंत्र शामिल हो जाता है। ऐसी स्थिति में पुलिस किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है अथवा आपा खो बैठती है। दोनों ही स्थितियां खतरनाक होती हैं। हाट-बाजार या सभा-सोसाइटी की भीड़ का अलग चरित्र होता है। वह सामान्यत: अनुशासित और नियंत्रित होती है। वह इसलिए क्योंकि वहां वह कुछ पाने जाती है, जबकि घटना-दुर्घटना या अफवाह के कारण जमा हुई भीड़ का स्वाभाविक चरित्र उग्र होता है। वह मुआवजा जैसा कुछ पाने के लिए अथवा किसी पर कार्रवाई के लिए शोर और दबाव की चाल चलती है।

दुष्कर्म के एक मामले में जेल में बंद कथित नाबालिग युवक की आत्महत्या से उबली भीड़ ने कांके थाना भवन को नुकसान पहुंचाकर खुद के लिए आफत को आमंत्रित किया। पुलिस और कानून भले ही पूरी भीड़ पर कुछ न कर सके लेकिन कुछ लोगों को तो केस-मुकदमे से दो-चार होना ही पड़ेगा। बहुत संभव है कि उनकी धर-पकड़ भी हो। ऐसे ही जमशेदपुर में छेड़खानी के एक मामले को लेकर भीड़तंत्र ने माहौल ऐसा बिगाड़ा कि दो समुदायों में तनाव की स्थिति बन गई। अंतत: कफ्र्यू तक की नौबत आ गई। ऐसी घटनाओं में शरारती तत्व तो निकल लेते हैं, लेकिन फंसते हैं वे, जो या तो तमाशाई होते हैं या फिर भावना में बहकर भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। भीड़ का इंसाफ हल्ला-हंगामा, मारपीट, तोडफ़ोड़ जैसा ही होता है, जिसे काननून अपराध माना जाता है। चूंकि ऐसी भीड़ सोच-समझकर कोई कदम नहीं उठाती, इसलिए जो पहचान में आ जाते हैं, उन पर भविष्य में गाज गिर जाती है। सामान्यत: तत्काल कुछ विशेष नहीं होता क्योंकि पुलिस सैकड़ों लोगों पर बर्बरता का प्रदर्शन नहीं करती, जबकि ऐसी भीड़ दबाव पर ही फटती है। इसमें उचित बात समझने वालों की तादाद कम होती है। अधिकांश लोग भावना के ज्वार पर सवार होते हैं। नाजायज मजमा लगाकर असंवैधानिक कदम उठाने वालों को भविष्य में मुसीबतें झेलने को तैयार रहना चाहिए।

[स्थानीय संपादकीय: झारखंड]