कांग्रेस की नेता और पूर्व केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने सोनिया गांधी को लिखी गई एक चिट्ठी और साथ ही एक संवाददाता सम्मेलन के जरिये पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर जैसे संगीन आरोप लगाए वे किसी सियासी धमाके से कम नहीं। जयंती नटराजन के आरोपों से पहले से ही हताश-निराश कांग्रेस की मुसीबत और बढ़ती दिख रही है। इसलिए और भी, क्योंकि उन्होंने कांग्रेस के भविष्य माने-जाने वाले राहुल गांधी पर जोरदार हमला बोला है।

हालांकि कांग्रेसी नेताओं ने जयंती पर पलटवार करते हुए राहुल के बचाव की भरसक कोशिश की है, लेकिन आम जनता के बीच तो पार्टी की फजीहत होती ही दिख रही है। कांग्रेस ने यह कहकर अपनी समस्या और बढ़ा ली है कि जयंती को हटाने के पीछे उन पर लग रहे आरोप ही थे, लेकिन यदि ऐसा वास्तव में था तो फिर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई? लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान जब नरेंद्र मोदी की ओर से यह कहा गया था कि सुनने में आया है कि दिल्ली में एक जयंती टैक्स भी लगता है तब तो कांग्रेस ने उनका बढ़-चढ़कर बचाव किया था।

चूंकि यह किसी से छिपा नहीं कि राहुल ने पर्यावरण मंजूरी में देरी को लेकर उद्योग जगत के समक्ष सफाई दी थी इसलिए यह संदेह उभरना स्वाभाविक है कि कहीं जयंती के इस आरोप में सच्चाई तो नहीं कि उन्हें बतौर पर्यावरण मंत्री राहुल के कहने पर फैसले लेने पड़ते थे? उनका तो यहां तक कहना है कि राहुल के कार्यालय से परियोजनाओं को मंजूरी देने-न देने के बारे में निर्देश आते थे और उनके लिए उनकी अनदेखी करना मुश्किल होता था। उन्होंने यह भी साफ किया कि किस तरह एक उद्योग समूह की फाइल छिपा दी गई थी।

क्या कांग्र्रेस की ओर से कोई स्पष्ट करेगा कि राहुल पर्यावरण मंत्रालय के काम में बेजा दखल क्यों देते थे? ऐसी ही दखलंदाजी के आरोप सोनिया गांधी पर भी लग चुके हैं। क्या सोनिया-राहुल बिना जवाबदेही मनमोहन सिंह सरकार पर्दे के पीछे से चला रहे थे? इन गंभीर सवालों का जवाब चाहे जो हो, इससे सभी परिचित हैं कि पर्यावरण रक्षा और गरीबों के हित के नाम पर किस तरह जरूरी योजनाओं-परियोजनाओं को लटकाया गया। इससे अर्थव्यवस्था को तो नुकसान उठाना ही पड़ा, दुनिया भर में यह संदेश भी गया कि भारत नीतिगत पंगुता से ग्र्रस्त हो गया है। जयंती नटराजन के इस्तीफे से यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपनी अनदेखी से आजिज आकर कांग्रेस नेतृत्व पर हमला बोला।

यह अजीब है कि उन्होंने अपना दुख-दर्द बयान करने का फैसला तब लिया जब सोनिया गांधी को लिखी गई उनकी तीन माह पुरानी चिट्ठी सार्वजनिक हो गई। आखिर उन्होंने तभी आवाज क्यों नहीं उठाई जब राहुल गांधी कथित तौर पर उनसे अनुचित काम करा रहे थे? किसी भी केंद्रीय मंत्री को यह शोभा नहीं देता कि वह पार्टी निष्ठा के नाम पर मौन रह कर अनुचित काम करता रहे। आखिर जयंती को अपनी आत्मा की आवाज तब क्यों नहीं सुनाई दी जब वह राहुल के मनमाने निर्देशों पर अमल कर रही थीं? यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि जब तक किसी की संगठन-सरकार में पूछ-परख होती रहे तब तक उसे नैतिकता की याद न आए और जब उसे हाशिये पर डाल दिया जाए तो वह खुद को अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले शख्स के रूप में पेश करे।

मुख्य संपादकीय