उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून में पढ़ाई कर रहे दानिश को भले ही अपनी गलती एहसास समय रहते हो गया और वह समाज की मुख्य धारा में लौट आया है। लेकिन, यह पूरा प्रकरण कई सवाल खड़े कर गया। खासकर, व्यवस्थागत खामियों के साथ ही जिम्मेदार तंत्र की असलियत सामने लाया है। पुलिस की सक्रियता और संवेदनशीलता दोनों पर ही प्रश्नचिह्न् लगा रहा है। मूल रूप से कश्मीर से ताल्लुक रखने वाले दानिश ने आतंक की राह छोड़ने से पहले तीन साल तक यहां दून पीजी कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर साइंस एंड टेक्नालॉजी में बीएसएसी की पढ़ाई की। इस साल वह तृतीय वर्ष की कुछ परीक्षाएं भी दे चुका था। इन तीन सालों के दरम्यान वह आतंकी संगठनों के बराबर संपर्क में रहा।

इतना ही नहीं, उसने अपने तीन अन्य दोस्तों को भी आतंकी नेटवर्क का हिस्सा बनाने में मदद की। यह अच्छी बात है कि उसका मन बदला और तीन रोज पहले उसने कश्मीर में सेना के सामने समर्पण कर दिया। यह एक सुखद पहलू जरूर है, पर इससे जिम्मेदारों की लापरवाही पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। देहरादून में हर साल बड़ी संख्या में दूसरे राज्यों से युवा शिक्षा ग्रहण करने आते हैं। ऐसा नहीं कि इन सभी का ट्रेक रेकार्ड खराब हो, मगर इनके बारे में आश्वस्त होने की बाध्यता है। यह जिम्मेदारी दाखिला देने वाले संस्थानों और पुलिस दोनों की है, पर इनमें से निभा कोई नहीं रहा है। दानिश के वेरिफिकेशन प्रकरण इसका उदाहरण है।

कश्मीर से ताल्लुक रखने के चलते तीन साल पहले पुलिस ने उसकी वेरिफिकेशन रिपोर्ट वहां की पुलिस से मांगी थी, जो आज तक नहीं मिली। शुक्र मनाइए कि वह नेटवर्किंग तक ही सिमटा रहा, आतंकियों की किसी बड़ी साजिश का हिस्सा बन जाता तो जाने कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती। देहरादून और हरिद्वार में आतंकी पनाह लेते रहे हैं। आतंकियों की यहां धरपकड़ भी हो चुकी है। नाभा जेल ब्रेक करने वालों ने भी वारदात के बाद दून का रुख किया था। डेढ़ सौ से ज्यादा केंद्रीय संस्थान, भारतीय सैन्य अकादमी और नामी स्कूलों के साथ ही राजधानी की वजह से देहरादून आतंकियों की हिट लिस्ट में माना जाता है। कई बार धमकियां भी मिल चुकी हैं। चिंता की बात यह कि इसके बाद भी तंत्र की नींद नहीं टूट रही है। जिम्मेदारों को लकीर पीटने की बजाय खुफिया नेटवर्क मजबूत करना होगा, ताकि ऐसे तत्वों को पांव जमाने का मौका ही न मिल सके।

(स्थानीय संपादकीय उत्तराखंड)