विधायी सदनों की कल्पना पवित्र उद्देश्य के लिए की गई थी। पक्ष-विपक्ष बहस और विचार-विमर्श करके राज्य के लिए कानून बनाएंगे, जनहितकारी बजट पारित करेंगे, जन समस्याओं का समाधान तलाशेंगे, ऐसा ही और भी काफी कुछ। दुखद है कि बिहार विधानमंडल के सदस्यों को ये बातें शायद याद ही नहीं। वे बाकायदा घोषणा करके सदन को अव्यवस्थित कर रहे हैं। विधानसभा अध्यक्ष सदन चलाने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे लेकिन विधायक कुछ भी सुनने या मानने को तैयार नहीं। उनकी शर्तें हैं कि जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक सदन नहीं चलने दिया जाएगा। इस दुर्भाग्यपूर्ण परिदृश्य में एक नई एवं नकारात्मक परंपरा यह शुरू हो गई कि विपक्ष के तर्ज पर सत्तापक्ष का भी एक घटक सदन न चलने देने की घोषणा कर रहा है। जब दोनों पक्ष किसी न किसी बहाने सदन न चलने देने पर आमादा हैं तो फिर कोई क्या कर सकता है। हद तो तब हो गई जब सभी दलों के नेता विधानसभा अध्यक्ष द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में सदन शांतिपूर्वक चलाने पर सहमत हो गए लेकिन सदन में पहुंचते ही यह बात भूलकर अपने पुराने रवैये पर लौट गए। इसके लिए पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि इसके लिए सभी पक्ष जिम्मेदार हैं। इस प्रतिस्पर्धा में कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता। कभी सदन में ऐसी होड़ प्रभावशाली भाषण, जनहित के मुद्दे उठाने तथा सरकार की घेराबंदी करने के लिए होती थी, लेकिन अब सदन न चलने देने की होड़ है। जन प्रतिनिधियों का यह आचरण उनके मतदाताओं के प्रति 'अपराध' जैसा है जिन्होंने अपना समर्थन देकर इन्हें इस उम्मीद में निर्वाचित किया कि सदन में वे उनकी समस्याओं पर सरकार का ध्यान आकृष्ट कराएंगे।
राज्य में इस समय ऐसे बड़े मुद्दे हैं जिन पर विधानमंडल में बहस अपेक्षित थी। पहले बाढ़ और फिर नोटबंदी के कारण किसानों की खेती-बारी प्रभावित है। बाढ़ के बाद सड़कों, खासकर राजमार्गों की मरम्मत का कार्य अपेक्षानुसार नहीं हुआ। इसके चलते राज्य के एक से दूसरे हिस्से की सड़क मार्ग से यात्रा चुनौतीपूर्ण कार्य हो गई है। स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं में जवाबदेही का अभाव है। राज्य की अधूरी या शुरू होने का इंतजार कर रहीं विकास योजनाओं के लिए केंद्रीय सहायता की गति बेहद मंद है। जनहित के ऐसे तमाम अन्य मुद्दे हैं जिन पर सदन में चर्चा होनी चाहिए थी। चर्चा होती तो शायद कुछ समाधान निकलता। यह भी दुभागर््यपूर्ण है कि कई विधेयक अव्यवस्थित सदन में बगैर चर्चा पारित हो गए। यह विधायी सदनों की स्थापना की मूल मंशा के विपरीत है। विधेयक सदन में पारित कराने का मकसद यह होता है कि उस पर पक्ष-विपक्ष खूब चर्चा कर लें ताकि कोई जनविरोधी प्रावधान पारित न हो सके। इसके विपरीत इस सत्र में कई विधेयक शोरगुल और अव्यवस्था के बीच पारित कर दिए गए। सभी दलों, खासकर दलीय नेताओं को इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए। सियासी खींचतान के लिए राज्य भर के 'अखाड़े' उपलब्ध हैं। विधानमंडल को व्यक्तिगत मुद्दों एवं अहम का अखाड़ा बनाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। जन प्रतिनिधियों का यह आचरण लोकतंत्र की मूल भावना के भी विपरीत है जिसमें जनता को जनार्दन तथा जन प्रतिनिधि को सेवक का दर्जा दिया जाता है। विधायकों को याद रखना चाहिए कि मतदाताओं ने उन्हें सदन चलाने के लिए भेजा है, अव्यवस्थित करने के लिए नहीं।

[ स्थानीय संपादकीय : बिहार ]