अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर नए सिरे से छिड़ी बहस में एक तरह से हस्तक्षेप करके राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने उचित ही किया। कोच्चि में एक कार्यक्रम में राष्ट्रपति ने अभिव्यक्ति की आजादी, असहमति, विश्वविद्यालयों के माहौल और राष्ट्रभक्ति को लेकर जो कुछ कहा उसे सभी पक्षों को गौैर से सुनना-समझना और उस पर अमल भी करना चाहिए। किसी को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि उन्होंने यह कहकर किसी एक पक्ष को इंगित किया है कि असहिष्णु भारतीयों के लिए भारत में कोई जगह नहीं हो सकती, क्योंकि उन्होंने दो टूक ढंग से यह भी कहा कि देश और उसके लोग सदैव पहली प्राथमिकता होने चाहिए। उन्होंने यह कहकर इसे और स्पष्ट भी किया कि राष्ट्रीय प्रयोजन की समझ और राष्ट्रप्रेम ही देश को प्रगति और समृद्धि की राह पर ले जा सकता है। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात यह कही कि तार्किक एव न्यायसंगत असहमति के लिए स्थान अवश्य होना चाहिए। वस्तुत: यही लोकतंत्र और स्वस्थ समाज की ताकत है। असहमति का सम्मान केवल होना ही नहीं चाहिए, बल्कि दिखना भी चाहिए। अपने मत को लेकर जरूरत से ज्यादा आग्रही होकर दुराग्रह की सीमा पार करने वाले न तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर कहे जा सकते हैं और न ही असहमति को सम्मान देने वाले। यह अच्छा हुआ कि राष्ट्रपति ने असहमति के लिए गुंजाइश बने रहने की बात उस धरती पर कही जो राजनीतिक हिंसा के लिए जाना जाता है। यह एक तथ्य है कि जिन राज्यों में राजनीतिक लोगों को अपने भिन्न विचारों के लिए हिंसा का सबसे अधिक सामना करना पड़ता है उनमें पहला नाम केरल का ही आता है।
नि:संदेह यह भी स्पष्ट है कि कोच्चि में राष्ट्रपति ने दिल्ली विश्वविद्यालय की हाल की घटनाओं का भी संज्ञान लिया और इसी कारण उन्होंने यह कहा कि जो लोग विश्वविद्यालयों में हैं वे तार्किक बहस को बढ़ावा दें, न कि अशांति फैलानी वाली संस्कृति को। एक प्रकार से राष्ट्रपति परोक्ष रूप से जहां अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और उसके समर्थकों से यह कह रहे हैं कि वे असहमति को सम्मान दें वहीं वामपंथी छात्र संगठनों को यह बता रहे हैं कि वे देश को प्राथमिकता प्रदान करें। यह कहना कठिन है कि कश्मीर, मणिपुर, बस्तर आदि के लिए आजादी मांगने और यहां तक कि छीन कर लेने की बात करने वाले यह समझेंगे कि ऐसे नारे अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा नहीं हो सकते। चूंकि राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में महिलाओं-बच्चों के प्रति व्यवहार और उनके प्रति नेताओं की जिम्मेदारी का भी जिक्र किया इसलिए यह समझा जा सकता है कि उनके मन में वे मसले भी रहे होंगे जो पिछले कुछ दिनों से मीडिया और सोशल मीडिया में बहस का विषय बने हुए हैं। यह बहस इसलिए सही दिशा में नहीं जा सकी, क्योंकि दिल्ली विश्वविद्याल की एक छात्रा से असहमति को एक ओर जहां छींटाकशी की संज्ञा दे दी गई वहीं दूसरी ओर उससे असमहत होने के बहाने अभद्रता की हद भी पार की गई। बेहतर हो कि सभी यह समझें कि न तो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर मनमानी हो सकती है और न ही असहमति के नाम पर।

[ मुख्य संपादकीय ]