इस बार भाजपा ने रिकार्ड सीटें जीतीं तो इस जनादेश का दूसरा पहलू भी है। कांग्रेस इस बार अपने निम्नतम स्तर तक जा पहुंची। केवल 11 सीटों तक सिमटी कांग्रेस में अब असंतोष के सुर सतह पर उभर आए हैं।

उत्तराखंड में संपन्न चौथे विधानसभा चुनाव में भाजपा तीन-चौथाई से ज्यादा सीटें हासिल कर सत्ता तक पहुंची। यह सोलह साल के उत्तराखंड के इतिहास में पहली दफा हुआ, जब किसी पार्टी ने इतना बड़ा जनादेश प्राप्त किया हो। इस बार भाजपा ने रिकार्ड सीटें जीतीं तो इस जनादेश का दूसरा पहलू भी है। कांग्रेस इस बार अपने निम्नतम स्तर तक जा पहुंची। केवल 11 सीटों तक सिमटी कांग्रेस में अब असंतोष के सुर सतह पर उभर आए हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि कांग्रेस में यह कोई पहली बार हो रहा है। राज्य बनने के बाद से लगातार कांग्रेस सत्ता में होने और सत्ता से बाहर होने, दोनों ही स्थिति में अंतर्कलह से जूझती रही है। बात चाहे 2002 की पहली निर्वाचित सरकार के समय की हो या फिर 2012 की तीसरी निर्वाचित सरकार की, कांग्रेस को विपक्ष से उतनी बड़ी चुनौती कभी नहीं मिली, जितनी पार्टी के भीतर से। कुछ अरसा पहले तक उत्तराखंड में कांग्रेस कई क्षत्रपों के साए तले थी। कई धड़ों में बंटे होने के बावजूद उस वक्त पार्टी खासी मजबूत नजर आती थी। वर्ष 2014 में जब कांग्रेस आलाकमान ने विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री पद से हटाकर हरीश रावत को उनका उत्तराधिकारी बनाया, पार्टी के अन्य क्षत्रपों को यह रास नहीं आया। नतीजतन, रावत के मुख्यमंत्री पद संभालने के कुछ ही दिन बाद पूर्व केंद्रीय मंत्री और पौड़ी गढ़वाल सीट से सांसद रहे सतपाल महाराज ने कांग्रेस से दामन झटक भाजपा में शामिल होने का फैसला किया। मोदी लहर में तब राज्य की पांचों सीटों पर कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी। रही सही कसर पूरी हो गई 2016 में कांग्रेस में हुई बड़ी टूट से। एक पूर्व मुख्यमंत्री व दो पूर्व मंत्रियों समेत कांग्रेस के दस विधायक भाजपा में शामिल हो गए। हालांकि दलबदल कानून के दायरे में आने के कारण उन्हें अपनी सदस्यता गंवानी पड़ी। इसके बाद ऐन विधानसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस के एक और कद्दावर नेता और तत्कालीन कैबिनेट मंत्री ने भी कांग्रेस को अलविदा कह भाजपा की सदस्यता ले ली। इन परिस्थितियों में कांग्रेस के लिए विधानसभा चुनाव में सत्ता बचाए रखना बड़ी चुनौती थी। जैसा अंदेशा था, हुआ भी वैसा ही और कांग्रेस को भाजपा के हाथों बुरी तरह मात खानी पड़ी। कांग्रेस का पूरा चुनाव अभियान तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत के इर्द-गिर्द ही केंद्रित था तो स्वाभाविक रूप से हार की जिम्मेदारी भी उनके ही सिर आई। हालांकि रावत ने इसे स्वीकार भी कर लिया मगर अब जिस तरह के हालात पार्टी के भीतर नजर आ रहे हैं, उनसे लगता नहीं कि कांग्रेस की यह रार जल्द थमने वाली है। यानी, आने वाले दिनों में कांग्रेस का यह कलह अगर और ज्यादा जोर पकड़ ले तो आश्चर्य नहीं।

 [ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]