यह बात समा चुकी है कि अंग्रेजी ही वह भाषा है जो जीवन की विभिन्न जरूरतों को पूरा करने की राह आसान करती है। स्कूली शिक्षा से ही अभिभावकों का इस बात पर जोर है कि पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी हो। गौर करें तो ऐसे स्कूलों में हिंदी महज एक विषय बनकर रह गई है, जिसकी परीक्षा पास कर लेने भर से काम चल जाता है। हालांकि हिंदी पट्टी में बड़ी संख्या में विद्यार्थी अब भी हिंदी माध्यम से ही शिक्षा ग्रहण करते हैं। इनमें कई प्रतियोगी परीक्षाओं में भी शानदार प्रदर्शन करते हैं, लेकिन यह संख्या तुलनात्मक रूप से कम है। हिंदी को बढ़ावा देने के उपाय भी औपचारिक हो गए हैं। आत्मा साथ छोड़ रही है। संगोष्ठियां और व्याख्यान आयोजित किए जाते हैं, लेकिन इन आयोजनों के प्रभाव की आयु अति न्यून होती है। कुल मिलाकर कहें कि हिंदी का प्रभाव दिनोंदिन कम होता जा रहा है। परस्पर संवाद को बढ़ाने में सोशल मीडिया की भूमिका अहम है, लेकिन इसकी भाषा भी अधिकांशतया इंग्लिश है। संवाद की नई-नई तकनीक भाषाई रूप से हिंदी को बेपटरी कर रही है। आज इस बात की पड़ताल की जाती है कि किस बैंक या सरकारी संस्थान में कितना फीसद काम हिंदी में निष्पादित किए जा रहे हैं। इस भाषा की व्यापकता का पैमाना बस यही रह गया है। हिंदी की होती इस दुर्गति पर विशेष रूप से काम करने की जरूरत है। इसे स्थापित करने के लिए अनिवार्यता निश्चित करनी होगी। राज्यों में हिंदी ग्रंथ अकादमी की स्थापना इस उद्देश्य से की गई थी कि विषयों को हिंदी में पढ़ाया जा सके, इसके लिए पुस्तकें तैयार की जाएं और हिंदी शब्दावली सुदृढ़ की जाए। हिंदी के विकास में इन ग्रंथ अकादमियों का योगदान भी अपेक्षा की कसौटी पर संतोषजनक नहीं है। विशेषकर हिंदी साहित्य की गौरवमयी पृष्ठभूमि वाले बिहार की चर्चा करें तो निराशा हाथ लगती है। व्यापकता के साथ हिंदी के प्रचार-प्रसार की कमी खलती है। पुस्तक मेला, संगोष्ठी और व्याख्यान तो आयोजित होते हैं, लेकिन महज क्षेत्र विशेष में। इसे घनीभूत करने की जरूरत है। बिहार में अपेक्षाकृत हिंदी प्रेमी ज्यादा हैं, लेकिन विषय सामग्रियों के अभाव में यह प्रेम गहरा नहीं हो पाता। जरूरत है रामधारी सिंह दिनकर और फणीश्वर नाथ रेणु जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों की धरती पर इस भाषा को अगाध सम्मान देने की, ताकि हिंदी के ह्यदिनकरह्ण का तेज बढ़े।

[ स्थानीय संपादकीय: बिहार ]