नीति आयोग ने जमीन-जायदाद की खरीद-फरोख्त में लगने वाली स्टांप ड्यूटी की दरों में कमी करने की जो सिफारिश की उस पर राज्य सरकारों को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। सच तो यह है कि नोटबंदी के बाद इस दिशा में कोई पहल हो जानी चाहिए थी, क्योंकि इसमें कोई दो राय नहीं कि स्टांप ड्यूटी की ऊंची दरें किसी न किसी स्तर पर काले धन का कारण बन रही हैं। आम तौर पर स्टांप ड्यूटी की दर अधिक होने के कारण उपभोक्ता जमीन-जायदाद की खरीद-फरोख्त की वास्तविक कीमत दर्शाने से बचते हैं। यह कोई ऐसा तथ्य नहीं जिससे राज्य सरकारें परिचित न हों, लेकिन कोई नहीं जानता कि इस दिशा में कोई ठोस पहल क्यों नहीं की गई? नीति आयोग का यह आकलन सही है कि स्टांप ड्यूटी की दरों में कमी लाने से राजस्व में कटौती होने की राज्य सरकारों की आशंका निर्मूल है, क्योंकि कई राज्यों का उदाहरण यह बताता है कि स्टांप ड्यूटी में कमी से राजस्व संग्रह में कोई कटौती नहीं हुई। उल्टे अपने घर का सपना देखने वाले लोगों को आसानी हुई। इसके साथ-साथ काले धन की समस्या से भी एक हद तक निजात मिली। फिलहाल यह कहना कठिन है कि नीति आयोग की इस सिफारिश को राज्य सरकारें किस रूप में लेंगी, लेकिन यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि कम से कम भाजपा शासित राज्य सरकारों को इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। इस संदर्भ में उनके समक्ष उदाहरण के रूप में गुजरात सामने है, जहां अन्य राज्यों की तुलना में स्टांप ड्यूटी की दरें काफी कम हैं।
अब जब राज्य सरकारें कई मामलों में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने के साथ ही उनके प्रभावी तौर-तरीकों का अनुसरण करने लगी हैं तब फिर यह आवश्यक हो जाता है कि इस मामले में भी बेहतर काम करने वाले राज्यों के तौर-तरीके शेष राज्य भी अमल में लाएं। राज्य सरकारों को न केवल स्टांप ड्यूटी की दरों में कमी करने का फैसला करना चाहिए, बल्कि यह भी देखना चाहिए कि लोगों को सस्ती दरों पर आवास कैसे हासिल हो। आवास समस्या के समाधान के मामले में राज्य सरकारें चाहे जैसा दावा क्यों न करें, सच्चाई यह है कि आवास संबंधी उनकी नीतियां प्रभावी नहीं सिद्ध हो रही हैं। आवास विकास संबंधी संस्थान आवास समस्या का समाधान करने में मुश्किल से ही सहायक सिद्ध हो रहे हैं। विडंबना यह है कि राज्य सरकारें इस पर ध्यान नहीं दे पा रही हैं कि शहरीकरण संबंधी नीतियों को दुरुस्त करने की आवश्यकता है। शहरीकरण के मामले में ज्यादातर राज्य सरकारों की नीतियां शहरों के परिदृश्य को बेहतर बनाने में सहायक साबित नहीं हो पा रही हैं। परिणाम यह है कि देश के ज्यादातर शहर बेतरतीब विकास की ओर बढ़ते दिख रहे हैं। शहरों का ढांचा लगातार जर्जर होता चला जा रहा है। यह स्थिति तब है जब गांवों से शहरों की ओर आबादी का पलायन लगातार बढ़ रहा है। इस पलायन के चलते आवास समस्या तो गंभीर हुई ही है, अन्य समस्याएं भी बढ़ी हैं। शहरों के उपयुक्त विकास के लिए पर्याप्त जमीन का अभाव इसीलिए बढ़ता जा रहा है, क्योंकि शहरीकरण संबंधी नीतियां भविष्य की जरूरत को ध्यान में रखकर नहीं बनाई जा रही हैं। आवश्यकता केवल इस बात की नहीं है कि आवास समस्या का समाधान करने के लिए स्टांप ड्यूटी की दरों में कमी लाई जाए, बल्कि अन्य अनेक उपायों पर अमल की भी है। बेहतर होगा कि शहरीकरण के मामले में नई दृष्टि अपनाई जाए।

[  मुख्य संपादकीय  ]