बिजली कर्मचारियों की 29-30 जून की प्रस्तावित प्रदेशव्यापी हड़ताल के मद्देनजर राज्य सरकार ने छह माह के लिए आवश्यक सेवा अनुरक्षण अधिनियम (एस्मा) लगा दिया है यानी कर्मचारी हड़ताल पर नहीं जा सकेंगे। अगर वे ऐसा करते हैं तो यह अवैध और दंडनीय होगा। एस्मा के पीछे सरकार की मंशा है कि जनजीवन को प्रभावित करने वाली आवश्यक सेवाओं की बहाली सुनिश्चित रहे। उधर, बिजली कर्मचारी हड़ताल पर अडिग हैं और कई कर्मचारी संगठनों ने भी उन्हें पूर्ण समर्थन का एलान किया है। ऐसी स्थिति में सरकार व कर्मचारियों के बीच टकराव तय है। अब देखने वाली बात होगी कि सरकार कैसे निपटती है? अभी चंद रोज ही हुए हैं कि जाट आंदोलनकारियों को किसी तरह राजी करके उसने आरक्षण आंदोलन स्थगित कराकर कुछ राहत की सांस ली। मगर उसके लिए अब कर्मचारियों के एलान से फिर मुसीबत आ खड़ी हुई है। बिजली कर्मी 23 सब डिविजन को निजी हाथों में सौंपने का विरोध कर रहे हैं। इसके साथ ही रिक्त पदों को भरने सहित वे कई मांगें उठा रहे हैं।

देखा जाए तो हर नीति के क्रियान्वयन पर उसके परिणाम निर्भर करते हैं। एस्मा को धरातल पर कैसे फलीभूत किया जाएगा, यह सबसे महत्वपूर्ण है। यूं तो प्रदेश में पहले भी एस्मा लगाने की स्थितियां आती रही हैं लेकिन उसके बावजूद कर्मी हड़ताल पर जाते रहे हैं। हड़तालियों पर कितनी कार्रवाई होती हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। असल में सरकार हड़ताली नेताओं पर कुछ कार्रवाई करती भी है तो बाद में कर्मचारी संगठनों के दबाव में उसे झुकना पड़ता है। यही नहीं, कर्मचारी संगठन भी किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़े रहते हैं। ऐसे में दलगत राजनीति भी आड़े आती है और सरकार को हाथ खींचने पड़ते हैं। सबसे अहम बात ये भी है कि एस्मा सरकार ने लगा तो दिया है मगर हड़ताल की स्थिति में वैकल्पिक व्यवस्था क्या होगी, इसकी कोई ठोस योजना नहीं है। अंतत : प्रभावित तो आमजन ही होता है। हालांकि बिजली कर्मी विद्युत आपूर्ति बाधित न करने का आश्वासन दे चुके हैं लेकिन आगे क्या होगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है। फिलवक्त सरकार व बिजली कर्मियों दोनों को टकराव का रास्ता छोड़ना होगा। मिल-बैठकर बीच का रास्ता निकालना ही सभी के लिए हितकर है।

(स्थानीय संपादकीय: हरियाणा)