घोषणा पत्रों की अहमियत
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर ने कहा है कि राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र के वादे पूरे नहीं करते और वे महज कागजी टुकड़ा बनकर रह जाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर के इस कथन से एक सीमा तक ही सहमत हुआ जा सकता है कि राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र के वादे पूरे नहीं करते और वे महज कागजी टुकड़ा बनकर रह जाते हैं, क्योंकि कई दल सत्ता में आने के बाद उन्हें पूरा करने की कोशिश भी करते हैं। कई बार उन्हें अपने चुनावी वादों को पूरा करने में सफलता भी मिलती है और वे इसका प्रचार भी करते हैं। इस सबके बावजूद उनका यह कहना बिल्कुल सही है कि राजनीतिक दलों को अपने चुनाव घोषणा पत्रों के प्रति जवाबदेह बनाने की आवश्यकता है, क्योंकि इधर यह देखने में आ रहा है कि चुनाव जीतने के लिए कुछ राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र में मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा देने वाले ऐसे लोक-लुभावन वादे भी कर देते हैं जिन्हें पूरा किया जाना संभव नहीं होता। एक समय था जब बिजली, पानी आदि मुफ्त देने के वादे किए जाते थे, लेकिन अब टीवी और घी तक देने के वादे किए जाने लगे हैं। ऐसे वादे करते समय राजनीतिक दल इस बात का हिसाब मुश्किल से ही लगाते हैं कि मुफ्त में चीजें अथवा सुविधाएं प्रदान करने के लिए जरूरी धन कहां से आएगा? अब तो रेवड़ियां बांटने के वादे के साथ सत्ता में आने वाले दल अपने घोषणा पत्र पर अमल के लिए केंद्र सरकार से अतिरिक्त सहायता देने की मांग भी करने लगे हैं। यह स्पष्ट ही है कि केंद्र सरकार के लिए ऐसा करना संभव नहीं होता, लेकिन यदि वह अतिरिक्त सहायता देने से इन्कार करती है तो उस पर यह तोहमत मढ़ी जाने लगती है कि उसके द्वारा राज्य विशेष की अनदेखी की जा रही है।
राजनीतिक दलों के रुख-रवैये को देखते हुए ऐसी कोई व्यवस्था बनाई जानी चाहिए जिससे वे चुनावी लाभ के लिए अनाप-शनाप घोषणाएं न कर सकें। हालांकि इससे संबंधित एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से कहा था कि वह यह देखे कि राजनीतिक दल घोषणा पत्रों में मनमानी घोषणाएं न कर सकें, लेकिन इसमें संदेह है कि इस संदर्भ में किसी प्रभावी रीति-नीति का निर्माण हो सका है। अच्छा हो कि चुनाव संबंधी आदर्श आचार संहिता को और सशक्त बनाने पर विचार हो, क्योंकि शायद ही कोई राजनीतिक दल हो जिसे इस संहिता के उल्लंघन पर दंड की चिंता सताती हो। यह तय है कि राजनीतिक दलों पर कोई दबाव बनाकर ही उन्हें अपने चुनावी घोषणा पत्रों के प्रति जिम्मेदार बनाने के साथ ही उन्हें गंभीर मसलों के हल के प्रति सक्रिय किया जा सकता है। राजनीतिक दल शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण एवं सामाजिक सुधार से जुड़े मसलों को अपने घोषणा पत्रों में मुश्किल से ही प्राथमिकता देते हैं। चूंकि राजनीति समाज को दिशा देने वाली व्यवस्था है इसलिए यह आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है कि राजनीतिक दल सामाजिक मूल्यों को बल देने से लेकर पर्यावरण की रक्षा के प्रति जागरूकता पैदा करने वाले काम अपने हाथ में लें। अच्छा हो कि चुनाव आयोग राजनीतिक दलों को यह बताए कि वे आदर्श चुनाव घोषणा पत्र तैयार कर समाज के साथ-साथ अपना भला कैसे कर सकते हैं।
[ मुख्य संपादकीय ]