यह निराशाजनक है कि पुलिस सुधारों के संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश देने संबंधी याचिका की सुनवाई से इन्कार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि कोई उसकी नहीं सुन रहा है। ऐसी टिप्पणी के बाद तो पुलिस सुधारों पर अमल और भी मुश्किल होगा। आखिर सुप्रीम कोर्ट पुलिस सुधारों पर अपने ही दिशा निर्देशों की अनदेखी कैसे कर सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में पुलिस सुधारों संबंधी सात सूत्रीय दिशा निर्देश दिए थे। पहले राज्य सरकारों ने इन दिशा निर्देशों पर अमल को लेकर तरह-तरह की समस्याएं गिनाईं। जब सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्देशों के अमल पर जोर दिया तो राज्यों ने हीलाहवाली शुरू कर दी। कहने को तो करीब आधे राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के अनुरूप पुलिस सुधार संबंधी विधेयक पारित करा लिए हैं, लेकिन उन पर गौर करने से यही पता चलता है कि वे इस इरादे से तैयार किए गए हैं ताकि पुलिस सुधारों से बचा जा सके। बाकी राज्यों ने प्रशासनिक आदेशों के जरिये सात सूत्रीय दिशा निर्देशों को मनमाने तरीके से परिभाषित करने का काम किया है। राज्यों के ऐसे रवैये से ज्यादा चिंताजनक यह है कि केंद्र सरकार भी पुलिस सुधारों को लेकर उत्साहित नहीं दिखती। वह चाहती तो एक उदाहरण पेश करके राज्यों पर इसके लिए दबाव बना सकती थी। पुलिस सुधारों की अनदेखी से यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि राजनीतिक दल पुलिस का इस्तेमाल अपने हिसाब से करते रहना चाह रहे हैं।
जब सुप्रीम कोर्ट यह समझ रहा है कि सरकारें पुलिस सुधारों को लागू करने से कन्नी काट रही हैं तब फिर उसे अपने आदेश पर अमल के मामले में सख्त रवैया प्रदर्शित करना चाहिए। यदि वह भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के कामकाज को सुधारने के लिए सक्रियता और सख्ती दिखा सकता है तो फिर पुलिस सुधारों के मामले में क्यों नहीं दिखा सकता? पुलिस सुधारों की अनदेखी कानून एवं व्यवस्था के साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ किया जाने वाला खिलवाड़ है। यह खिलवाड़ महंगा पड़ेगा। यदि सामान्य पुलिस सुधार नहीं हो पा रहे हैं तो फिर इसकी उम्मीद कैसे की जा सकती है कि इस देश में संघीय पुलिस सरीखे किसी ढांचे का निर्माण होे सकता है? कानून एवं व्यवस्था के साथ आंतरिक सुरक्षा के समक्ष जैसे गंभीर खतरे उभर आए हैं उन्हें देखते हुए पुलिस सुधारों की दिशा में तेजी से आगे बढ़ने के साथ ही यह भी आवश्यक है कि संघीय पुलिस का कोई ढांचा तैयार हो। कायदे से अब तक तो यह ढांचा खड़ा हो जाना चाहिए था, लेकिन कोई नहीं जानता कि ठंडे बस्ते में गए राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र यानी एनसीटीसी की सुध क्यों नहीं ली जा रही है? मुंबई हमले के बाद एनसीटीसी का गठन और आवश्यक समझा गया था। अब जब ऐसे किसी केंद्र की आवश्यकता और बढ़ गई है तब फिर यह जरूरी हो जाता है कि केंद्र सरकार उसे लेकर राजनीतिक आम सहमति कायम करने की दिशा में आगे बढ़े। उसे पुलिस सुधारों पर भी गंभीरता दिखानी होगी। इसके साथ ही यह भी अपेक्षित है कि सुप्रीम कोर्ट अपने ही आदेश की अनदेखी करता हुआ न दिखे।

[ मुख्य संपादकीय ]