उत्तराखंड को अस्तित्व में आए 16 साल का वक्फा गुजर चुका है, लेकिन पलायन का सवाल आज भी जस का तस है। लिहाजा, इस दिशा में गंभीरता से कदम उठाने की दरकार है।
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विषम भूगोल वाले उत्तराखंड से पलायन का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। सवा करोड़ की आबादी वाले इस सूबे के लगभग इतने ही लोग प्रदेश से बाहर निवास कर रहे हैं। गांवों की बात करें तो राज्य गठन के बाद से अब तक तीन हजार के करीब गांव खाली हो चुके हैं। इनमें अधिकांश पर्वतीय इलाकों के गांव हैं। आंकड़े खुद गवाही दे रहे कि अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से सटा उत्तराखंड किस प्रकार पलायन की त्रासदी झेल रहा है। सवाल उठता है कि आखिर, यह सिलसिला क्यों नहीं थम रहा। क्यों लोग अपनी जड़ों को छोड़ अन्यत्र बसने को विवश हैं। इन सवालों के आलोक में देखें तो अब तक की सरकारों की पहाड़ के गांवों के प्रति अनदेखी मुख्य वजह है। स्थिति ये है कि पहाड़ के चार हजार से अधिक तोक गांवों को रोशनी का इंतजार है तो बड़ी संख्या में गांवों तक सड़क नहीं पहुंच पाई है। सबसे बुरा हाल स्वास्थ्य सेवाओं का है। अस्पतालों के नाम पर भवन बने हैं, मगर चिकित्सकों के अभाव में ये महज उपस्थिति दर्ज कराने तक सीमित हैं। उस पर दवाओं का टोटा सो अलग। यही नहीं, शिक्षा, पेयजल आदि से जुड़े सवाल किसी से छिपे नहीं हैं। गांवों में रोजगार मुहैया कराने की दिशा में अब तक कोई ठोस पहल नहीं हो पाई है। ऐसे में यहां से हो रहे पलायन को विकास के लिए सत्याग्रह के रूप में भी समझा जा सकता है। बात समझने की है कि यदि बेहतर सुविधाओं के साथ ही रोजगार के अवसर मिलेंगे तो कोई अपनी माटी को छोड़ दूसरी जगह क्यों बसेगा। इसी सवाल को सुलझाने की दिशा में अब तक की सरकारों ने कभी भी गंभीरता दिखाई हो, ऐसा नजर नहीं आता। यदि कोई पहल होती तो आज राज्यभर के गांवों में ढाई लाख से अधिक घरों में ताले नहीं लटके होते। राज्य से बाहर बसे प्रवासियों के मन में भी इसे लेकर पीड़ा है। कई प्रवासी वापस लौटकर गांव के विकास में योगदान देने के इच्छुक हैं, मगर सरकारें अपनी ओर से कुछ पहल तो करें। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य की नई सरकार स्थिति की गंभीरता को समझेगी और पलायन पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कदम उठाएगी। इसका फोकस गांवों पर केंद्रित होना चाहिए। कहने का आशय ये कि गांव को केंद्र में रखकर योजनाओं को धरातल पर उतारना होगा, ताकि मूलभूत सुविधाएं पसर सकें। साथ ही रोजगार के अवसर सृजित करने पर भी ध्यान देना होगा। तब जाकर ही पलायन पर अंकुश लग सकेगा।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]