राज्य सरकारें किस तरह अपने हिस्से के जरूरी काम करने में भी आनाकानी करती हैं, इसे ही बयान कर रहा है सुप्रीम कोर्ट का वह निर्देश जिसके तहत उसने छह राज्यों के आला अधिकारियों को तलब करने के साथ उनसे पुलिस भर्ती की रूपरेखा की जानकारी भी मांगी। सुप्रीम कोर्ट को यह सख्ती इसलिए दिखानी पड़ी, क्योंकि कुछ समय पहले ही पुलिस कर्मियों की अपर्याप्त संख्या और उनकी सुविधाओं की अनदेखी संबंधी याचिका पर सुनवाई करते समय उसने सभी राज्यों को यह निर्देश दिया था कि वे पुलिस कर्मियों के रिक्त पदों को जल्द भरें। विगत दिवस उसने यह पाया कि तमाम राज्यों ने इस निर्देश के पालन के प्रति न्यूनतम गंभीरता भी नहीं प्रदर्शित की। यह आश्चर्यजनक है कि सुप्रीम कोर्ट 2013 से इस पर जोर दे रहा है कि राज्य सरकारें पुलिस के रिक्त पदों को भरने के काम को प्राथमिकता के आधार पर पूरा करें, लेकिन राज्य सरकारें ऐसे व्यवहार कर रही हैं जैसे यह अंतिम प्राथमिकता वाला काम हो। 2015 के एक आंकड़े के अनुसार देश भर में पुलिस कर्मियों के करीब साढे़ चार लाख पद रिक्त पड़े थे। अनुमान है कि अब इन रिक्त पदों की संख्या लगभग पचास फीसद पहुंच गई होगी। इसका मतलब है कि राज्य सरकारें जानबूझकर कानून एवं व्यवस्था से खेल रही हैं। किसी के लिए भी यह समझना कठिन है कि कानून एवं व्यवस्था को अपने अधिकार क्षेत्र वाला विषय बताने को आतुर रहने वाली राज्य सरकारें पुलिस के संख्या बल की कमी को दूर करने के लिए सचेत क्यों नहीं? एक ऐसे समय पुलिस के खाली पद भरने में आनकानी गैर जिम्मेदारी की पराकाष्ठा ही है जब पुलिस की जिम्मेदारियां और चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि अपराध का ग्र्राफ बढ़ने और सार्वजनिक स्थलों में शांति एवं व्यवस्था को भंग करने वाली घटनाएं पर्याप्त पुलिस बल के अभाव में ही बढ़ रही हैं। सुगम यातायात में बाधा के पीछे भी एक बड़ा कारण पुलिस कर्मियों का अभाव ही है।
पुलिस की पर्याप्त उपलब्धता कानून एवं व्यवस्था की रक्षा करने के साथ-साथ लोगों को सार्वजनिक स्थलों पर अनुशासन के प्रति सजग बनाने में भी सहायक है। पुलिस आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों का सामना करने वाली पहली कड़ी भी है। अब जब पुलिस भर्ती पर राज्य सरकारों के सुस्त रवैये को लेकर कहीं कोई संदेह नहीं रह गया है तब फिर बेहतर होगा कि सुप्रीम कोर्ट उन स्थितियों की भी पड़ताल करे जिनके चलते उसके दखल के बाद भी मामला जहां का तहां है। ऐसा लगता है कि ढेर सारे मामलों के निस्तारण के क्रम में सुप्रीम कोर्ट इस पर निगाह नहीं रख पाता कि उसने किस मामले में क्या आदेश-निर्देश जारी किए थे और उन पर पालन हुआ या नहीं? यह पहला ऐसा मामला नहीं जो यह बता रहा हो कि राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की अनदेखी करने वाला रवैया अपनाया। रह-रह कर ऐसे मामले सामने आते रहते हैं जिनसे यह पता चलता है कि राज्य सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की उपेक्षा की। अच्छा होगा कि सुप्रीम कोर्ट पुलिस सुधारों संबंधी अपने दिशा निर्देशों के अमल की अनदेखी को भी अपने एजेंडे पर ले।

[ मुख्य संपादकीय ]