हिंदी और हिंदी भाषियों की उपेक्षा फिर चर्चा में है। इस बार भारतीय संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की सिविल सर्विसेज परीक्षा की तैयारी में जुटे हिंदी भाषी विद्यार्थियों ने अपने साथ भेदभाव का आरोप लगाया है और अब वे आंदोलन की राह पर हैं। विवाद गहराता देख केंद्र सरकार ने मामला सुलझने तक आयोग से परीक्षा टालने का आग्रह किया है। उसने तीन सदस्यीय समिति का गठन भी कर दिया है जिसकी रिपोर्ट जल्दी ही संभावित है। दरअसल, इस विवाद की जड़ 2011 में तब पड़ी जब संघ लोक सेवा आयोग ने अपनी प्रारंभिक परीक्षा के पाठ्यक्रम में कॉमन सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टेस्ट को जोड़ा। इसके तहत वैकल्पिक विषय की जगह सीसैट को लाया गाया। इस 400 अंक की परीक्षा में 200 अंक का सामान्य अध्ययन और 200 अंक का सीसैट होता है। आयोग ने जिस मंशा के साथ यह बदलाव किया था, वह इस टेस्ट से पूरी नहीं हो पाई है। इसके उलट हिंदीभाषी अभ्यर्थी हाशिए पर आते जा रहे हैं। कारण यह कि इस टेस्ट में अंग्रेजी भाषा का पर्चा पास करना अनिवार्य कर दिया गया। अब प्रश्न अंग्रेजी में बनाए जाते हैं और उनका अनुवादित पर्चा हिन्दी भाषियों को मिलता है। अभ्यर्थियों का आरोप है कि अंग्रेजी से किये गए इस अनुवाद की भाषा इतनी अव्यवहारिक और नीरस है कि वह अच्छी हिंदी जानने वालों के भी पल्ले नहीं पड़ती। खासतौर पर कला वर्ग के अभ्यर्थी इससे खासे हतोत्साहित हैं। यूपीएससी परीक्षा की तैयारी कर रहे हिंदीभाषी छात्रों की मांग है कि सिविल सर्विसेज एप्टिट्यूड टेस्ट को खत्म कर परीक्षा का पुराना तरीका लागू किया जाए। इस मामले की गूंज लोकसभा में भी सुनाई दी। पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी को कहना पड़ा कि हिंदी माध्यम से इस सेवा में आने वाले अधिकारियों की संख्या घटकर महज दो फीसद रह गई है और ऐसे में राजभाषा के प्रोत्साहन को बनाई गईं सभी योजनाएं निरर्थक हैं। जोशी का यह बयान हिंदी का कटु यथार्थ है। यदि यूपीएससी का हिंदी को लेकर यही रवैया रहा तो देश की सबसे बड़ी सरकारी नौकरी पाने की ख्वाहिश रखने वाले हिंदी भाषियों के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती होगी। आयोग को ध्यान रखना होगा कि अभ्यर्थियों को यह परीक्षा पास करने में भाषा बाधा न बने। यदि वर्तमान पाठ्यक्रम जारी रहा तो हिंदी बिल्कुल ही हाशिए पर चली जाएगी।

[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]