पर्वतीय जिलों में स्वास्थ्य सेवाएं दुरुस्त करना सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। सरकार यदि इस चुनौती से पार पाना चाहती है तो उसे इसके लिए कठोर कदम भी उठाने होंगे।
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पर्वतीय क्षेत्रों में अभी तक स्वास्थ्य सेवाओं का पटरी पर न आ पाना बेहद चिंताजनक है। जिस तरह उत्तरकाशी के दूरस्थ इलाके ल्वारका धौंतरी में आपातकालीन स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में एक गर्भवती को वाहन में ही प्रसव कराना पड़ा, उससे प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं पर सवालिया निशान लगते हैं। इसमें सबसे चिंताजनक पहलू 108 एंबुलेंस सेवाओं का पटरी से उतरना है। यदि 108 सेवा सुचारु रहती तो फिर महिला को यूं यात्री वाहन में ही प्रसव न करना पड़ता। इससे एक दिन पहले उत्तरकाशी के मोरी क्षेत्र में भी गर्भवती को अस्पताल ले जाने के लिए 108 सेवा नहीं मिल पाई। नतीजतन महिला को अपने वाहन में ही प्रसव करना पड़ा। एक तो पहाड़ का विषम भूगोल और उस पर पटरी से उतरती स्वास्थ्य सेवाएं लोगों की परेशानियों में लगातार इजाफा कर रही हैं। स्थिति यह बनने लगी है कि पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाले लोगों को हर छोटी बड़ी स्वास्थ्य संबंधी समस्या के लिए जिला मुख्यालयों की ओर रुख करना पड़ता है। कई बार गांव से मुख्य मार्ग तक पहुंचते-पहुंचते मरीज दम तोड़ देते हैं। सवाल यह उठता है कि आखिर पर्वतीय क्षेत्र कब तक स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम रहेंगे। नाम के लिए पहाड़ी जिलों में राजकीय औषधालय, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र खोले गए हैं लेकिन ये केवल प्रतीकात्मक रूप में ही कार्य कर रहे हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो राज्य में 993 सरकारी अस्पताल हैं। इनमें चिकित्सकों के 2711 पद स्वीकृत हैं। इसके सापेक्ष आधे पद वर्षों से खाली ही चल रहे हैं। अस्पतालों में फार्मेसिस्ट समेत अन्य स्टाफ व दवाओं की भी कमी है। यह स्थिति तब है जब राज्य गठन के बाद आने वाली हर सरकार प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने का दावा तो करती रही लेकिन इसमें आज तक कोई सफल नहीं हो पाया है। अब सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती पर्वतीय क्षेत्रों में चिकित्सकों की तैनाती करना है। सरकार ने इसके लिए प्रयास तो किए हैं लेकिन अभी यह मंशा परवान चढ़ती नजर नहीं आ रही है। सरकार को इस दिशा में और गंभीर प्रयास करने की जरूरत है।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]