केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के दो दिवसीय झारखंड प्रवास के दौरान और उसके तत्काल बाद राजधानी के निकट जंगल में तीन लोगों की पाई गई लाश और मंगलवार को खूंटी-रांची के सीमाई जंगल में छह लोगों की मिली लाशों का निहितार्थ समझना जरूरी है। गृह मंत्री पूर्वी क्षेत्रीय परिषद की बैठक में भाग लेने आए थे, जिसमें निशाने पर नक्सली-उग्रवादी रहे। परिषद के चारों सदस्य राज्य झारखंड, बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल नक्सलवाद और उससे विक्षुब्ध होकर बने उग्रवादी गिरोहों से पीडि़त हैं। यह सिलसिला वर्षो से चला आ रहा है। इसी कड़ी में यह भी देखा जाना चाहिए कि पिछले दिनों डीजीपी ने जिलों के एसपी और प्रक्षेत्रीय डीआइजी की बैठक कर अपराधियों पर हर हाल में अंकुश लगाने का फरमान जारी किया तो उसके हफ्ता भर के अंदर राजधानी क्षेत्र से मुख्यमंत्री के प्रेस सलाहकार की स्टाफ कार के अपहरण सहित अनेक आपराधिक घटनाएं हुईं। नक्सलियों-उग्रवादियों और अपराधियों की इन करतूतों को आए दिन होने वाली घटनाओं से जोड़कर ही नहीं देखा जा सकता। शासन-प्रशासन आतताइयों के खिलाफ रणनीति तय करता है तो वे बड़ी घटनाओं को अंजाम देकर चिंताजनक चुनौती पेश कर देते हैं।

यह ठीक है कि पिछले दो-तीन वर्षों में राज्य में नक्सलियों-उग्रवादियों पर नियंत्रण पाने के कई सफल प्रयास किए जा चुके हैं, जबकि आपराधिक गिरोहों पर भी अंकुश लगाने की कोशिशें हुई हैं। इससे शासन-प्रशासन के प्रति जनता का जितना विश्वास बढ़ता है, उसको बड़ी वारदातें कर ये तत्व धो-पोंछ डालना चाहते हैं। जैसा कि अक्सर कह दिया जाता है, उनके इस कृत्य को हताशा में उठाया गया कदम मान लेना बहुत हल्के में लेने के समान होगा। वे राज-व्यवस्था के लिए पहले तो चुनौती थे ही, अभी भी हैं। उनका खात्मा जरूरी है। ऐसा भी नहीं है कि यह नहीं किया जा सकता या शासन-प्रशासन नहीं करना चाहता लेकिन दीर्घसूत्रता के कारण यह नहीं हो पा रहा है। चौबीस घंटे के अंदर राजधानी रांची से सटे इलाकों में नौ लोगों की हत्या कर देना मामूली घटना नहीं है। मृतक कैसे लोग थे, इस पर विचार-मंथन करने के बजाय यह भी सोचा जाना चाहिए कि वे नागरिक थे। दंड देना उग्रवादियों के हिस्से का नहीं है। वर्षों से आतंक का पर्याय बने कुंदन पाहन पर पुलिस हाथ तक नहीं डाल सकी है, यह बड़ी विडंबना है। जैसा कि गृह मंत्री ने संदेश दिया है, इन आतताइयों का फन कुचलना ही होगा।

[ स्थानीय संपादकीय : झारखंड ]