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अंधविश्वास में हत्याएं और प्रताडऩा झारखंड के लिए कोई नई घटना नहीं हैं। पहले भी राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में शर्मसार कर देने वाली ऐसी घटनाएं घट चुकी हैं। कभी अलौकिक शक्ति हासिल करने की चाह में मासूमों की बलि दे दी गई, तो कभी विधवा, वृद्ध और अधेड़ महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया गया। इन सभी घटनाओं की जड़ में कहीं न कहीं अंधविश्वास ही रहा है। झारखंड गठन के बीते 17 वर्षों की बात करें तो डायन करार देकर अच्छी-भली 1600 से अधिक महिलाएं मार डाली गईं। दर्जनों महिलाएं सपरिवार गांव से बहिष्कृत कर दी गईं। इतना ही नहीं डायन करार देकर निर्वस्त्र घुमाने, गंदगी खिलाने-पिलाने, शव के साथ कमरे में बंद कर देने जैसी असंख्य घटनाओं का गवाह रहा है झारखंड। शनिवार की घटना तो अंधविश्वास की सारी हदें ही पार कर गई। तथाकथित तंत्र विद्या की सिद्धि के लिए गुमला में छह वर्ष के मासूम की बलि दे दी गई। हद तो यह कि खुद थाने में सरेंडर करने वाले हत्यारे ने पूर्व में अपने बेटे की बलि देने का खुलासा किया। ऐसे में हम डिजिटलाइजेशन की दुहाई दें, विकास दर में लंबी छलांग लगाने का दंभ भरें, बेइमानी ही होगी। तथाकथित डायन-बिसाही कुप्रथा के खिलाफ झारखंड में जंग लड़ रहे शोधकर्ताओं की मानें तो इस अंधविश्वास की जड़ में अशिक्षा तो है ही, तथाकथित ओझा-गुणी भी ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार हैं। उनके इशारे मात्र पर महिलाएं डायन करार कर दी जा रही हैं। कुछ अपराधी प्रवृत्ति के लोग जमीन-जायदाद के लालच में ओझा-गुणी को आगे कर ऐसी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। ऐसी बात भी नहीं है कि सरकार इस मामले में बिल्कुल ही चुप है। अपराधियों के खिलाफ जहां भादवि की विभिन्न धाराओं के तहत कार्रवाई हो रही है, वहीं अलग से डायन प्रतिषेध अधिनियम भी प्रभावी है। लोगों को जागरुक करने के लिए सुदूर क्षेत्रों में प्रचार वाहन के अलावा नुक्कड़ नाटक आदि आयोजित किए जा रहे हैं। सरकार की कोशिश के बावजूद लोगों की आंखों पर पड़ी अंधविश्वास की यह पट्टी हटती नहीं दिख रही। आवश्यकता है अंधविश्वास के खिलाफ इस जंग में हर तबके की सहभागिता की। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जबतक समाज जाग्रत नहीं होगा, शिक्षा की ज्योति सुदूर क्षेत्रों में नहीं जलेगी।

[ स्थानीय संपादकीय : झारखंड ]