कहते हैं मीठा बोलने में कैसी दरिद्रता। लोग धन-धान्य की अपेक्षा नहीं करते लेकिन यह अवश्य चाहते हैं कि उन्हें अनावश्यक झिड़का न जाए, अपशब्द न कहे जाएं। कुबोल तो दूर, अपने यहां तो यह तक कहा गया है कि, रहिमन वे नर मर चुके जिन मुख निकसत नाहिं.। यानी याचक को खाली हाथ लौटाना भी अच्छा नहीं माना जाता। अफसोस तब होता है जब ऐसे समभाव की विराट संस्कृति वाले शीतल जल में पत्थर वे उछालते हैं जिन पर समाज को दिशा देने का दायित्व है। गुरुवार को यदि बेनी प्रसाद वर्मा ने कहा कि वह नरेंद्र मोदी को मरने नहीं देंगे तो शुक्रवार को कांग्रेस के लोकसभा उम्मीदवार इमरान मसूद ने सभी मर्यादाएं छिन्न भिन्न कर डालीं। मोदी के प्रति अपनी नाराजगी उन्होंने जैसे और जिन शब्दों में व्यक्त की, उनकी निंदा कोई भी समाज करेगा। राजनीतिक प्रतिरोध के बीच अशोभनीय आचरण या बेलगाम जुबान का क्या काम। इमरान पर कई धाराओं में मुकदमा तो फौरन दर्ज हो गया पर असहज कांग्रेस कार्रवाई करने में देर कर गई।

बड़बोले नेताओं पर अंकुश लगाने में हुई यही देरी उनके अराजक बयानों को बढ़ावा देती है। अन्यथा कैसे बेनी जैसे पुराने नेता भी भाषा पर नियंत्रण खो बैठते हैं। समस्या केवल इमरान मसूद के साथ नहीं बल्कि हर दल में है। बेंगलुरु के पब में हिंदू धर्म के स्वयंभू ठेकेदार बनकर लड़कियों पर हमला करने वाले मुथालिक को भाजपा सुबह दल में लेती है लेकिन शाम होते-होते बाहर का रास्ता दिखा देती है। उन्हें शामिल करके क्या संदेश देना चाहती थी भाजपा। आजम खां चर्चा में रहते हैं तो अपने आक्रामक बयानों के कारण। बदलाव का नाम लेकर आयी आम आदमी पार्टी भी अब बेतुके बयानों की उस्ताद हो चुकी है। बहुत दिन नहीं बीते जब इसी देश में लाल बहादुर शास्त्री, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, इंद्रजीत गुप्ता, राजनारायण जैसे विशुद्ध संसदीय परंपराओं के विद्वान हुआ करते थे। राममनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी के कथन किस्से कहानियों की तरह लोगों की जुबानों पर हैं। आम नागरिक मूर्ख नहीं है। वह खूब समझता है कि ऐसे बयान नेतृत्व से प्रशंसा पाते हैं और इन्हें देने वाले सुर्खियां बटोर कर प्रसिद्ध हो जाते हैं। यह प्रसिद्धि लेकिन स्थायी नहीं और इसी साधारण व्यक्ति को भरोसा है कि अगले कुछ वर्षों के उजले भारत में ये सब बदलने वाला है।

[स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश]