गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) के सभी सदस्यों द्वारा गोरखा क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) से इस्तीफा देने के बाद अब उसके अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है। जीटीए का गठन इसीलिए किया गया था कि अलग राज्य का मुद्दा को शांत किया जाए जिसमें केंद्र व सरकार की अहम भूमिका थी। केंद्र भी जीटीए का एक पक्ष है। इसलिए गोजमुमो पहले केंद्र पर पहाड़ समस्या पर हस्तक्षेप के लिए दबाव डाल रहा था, लेकिन इसमें एक पेंच यह था कि राज्य सरकार की सहमति के बिना केंद्र कोई कदम नहीं उठा सकता। इसलिए केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को आश्वस्त किया कि राज्य की अनदेखी कर गोजमुमो से कोई वार्ता नहीं होगी। इसलिए गोजमुमो प्रमुख विमल गुरुंग समेत सभी सदस्यों ने जीटीए से इस्तीफा दे दिया।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहले ही कहा था कि जीटीए का कार्यकाल खत्म होनेवाला है। 2 अगस्त 2017 के पहले हर हाल में चुनाव कराना पड़ेगा। चुनाव का समय आने पर गोजमुमो ने पहाड़ में बंद- हड़ताल का रास्ता अपना लिया। वैसे गुरुंग भी मुख्यमंत्री पर जीटीए में अनावश्यक हस्तक्षेप करने का आरोप लगाते रहे हैं। उन्होंने जीटीए से अलग हटने की बात पहले ही कही थी और अंतत: अपने सभी सदस्यों के साथ इस्तीफा दे दिया। दरअसल सरकार ने जिस तरह कड़ा रुख अपनाते हुए जीटीए का आडिट कराने की दिशा में कदम आगे बढ़ाया था उसके बाद जीटीए का ऐसा ही हश्र होना था।

आडिट के लिए वित्त विभाग की जो टीम पहाड़ पहुंची थी उसे आर्थिक अनियमितता के कुछ सुराग मिले हैं। सरकार ने आर्थिक अनियमितता में दोषी पाए जानेवालों के विरुद्ध एफआइआर दर्ज कराने के भी संकेत दिए थे। सुभाष घीसिंग के समय दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) का जो गठन हुआ था उसका भी अंत में वर्षो तक चुनाव लंबित रहा। अंत में डीजीएचसी को भंग करना पड़ा। जीटीए का भी अंत में यही हश्र होता है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

इसलिए कि जीटीए के पहले कार्यकाल में ही समय पर चुनाव होने पर संदेह खड़ा हुआ और गोजमुमो सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया, लेकिन सवाल यह उठता है कि जीटीए भंग होता है और गोखालैंड की मांग से गोजमुमो पीछे नहीं हटता है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन होगा? इसका जवाब करार तोड़ने की परिस्थिति पैदा करनेवाले को ही देना पड़ेगा।

[पश्चिम बंगाल संपादकीय]