उत्तराखंड की ग्रीन बोनस की मांग अनुचित नहीं है, लेकिन पर्यावरण को सहेजना भी उतना ही जरूरी है। आवश्यक है विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कायम रखना।
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पर्यावरण को सहेजने में हिमालयी राज्यों का योगदान किसी से छिपा नहीं है। एक अनुमान के अनुसार अकेले उत्तराखंड के वन ही देश को 107 बिलियन रुपये की पर्यावरणीय सेवाएं दे रहे हैं। ऐसे में हिमालयी राज्यों से उठ रही ग्रीन बोनस की मांग अनुचित भी नहीं है। सोमवार को नीति आयोग के उपाध्यक्ष देहरादून पहुंचे तो मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने एक बार फिर उनके सम्मुख यह बात रखी। दरअसल, उत्तराखंड का 71.05 फीसद भूभाग वन क्षेत्र है। ऐसे में प्रदेश के सामने विकास की राह में तमाम तरह की बाधाएं रहनी स्वाभाविक हैं। भले ही जल, जंगल और जमीन प्रदेश की विरासत हो, लेकिन इसके उपयोग को लेकर तमाम तरह की दिक्कतें रहती हैं। मसलन राज्य अपने जल संसाधन का उपयोग नहीं कर पा रहा है। पर्यावरण के दृष्टिगत बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं को मूर्तरूप देना संभव नहीं है। उत्तरकाशी जिले में तीन बड़ी परियोजनाएं अधर में हैं। किसी भी प्रदेश के विकास के सबसे ज्यादा जरूरी है सड़क। लेकिन उत्तराखंड में करीब तीन सौ से ज्यादा सड़कें वन अधिनियम में उलझी हैं। इनके लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से मंजूरी लेनी होती है। पिछले दिनों केंद्र ने करीब 317 सड़कों के प्रस्ताव राज्य को लौटा दिए। हालांकि इसमें खामी प्रदेश के अफसरों की रही। मानकों को पूरा किए बिना ही प्रस्ताव बनाकर भेजे गए। फलस्वरूप स्थिति यही होनी थी। अब इन सड़कों की मंजूरी के लिए पुन: प्रस्ताव भेजने होंगे। इसके अलावा पेयजल योजनाएं और बिजली लाइनें भी वन कानून में फंसी हुई हैं। आजादी के सात दशक बाद भी उत्तराखंड के कई गांव न केवल सड़क सुविधा से वंचित हैं, उन्हें बिजली-पानी जैसे मूलभूत सुविधाएं भी मयस्सर नहीं हैं। यही वजह है कि करीब तीन साल पहले जब पर्यावरण मंत्रालय ने उत्तरकाशी जिले में गंगोत्री के सौ किलोमीटर दायरे को ईको सेंसिटिव जोन घोषित किया तो स्थानीय लोग सड़कों पर उतर आए। इसकी मुख्य वजह यह है कि सरकार स्थानीय लोगों को यह बताने में नाकाम रही कि विकास का वैकल्पिक खाका क्या होगा। जाहिर है ग्रीन बोनस की मांग न्यायोचित है, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। सवाल यह है क्या सरकार के पास ग्रीन बोनस को खर्च करने का रोडमैप है। जरूरी यह है कि ग्रीन बोनस उन इलाकों में खर्च किया जाना चाहिए जो पर्यावरण संरक्षण में योगदान कर रहे हैं और इसके साथ ही जरूरत है कि आम जन को पर्यावरण सहेजने के लिए जागरूक किया जाए।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]