प्रदेश सरकार पंचायतों को और सशक्त बनाने के प्रयास में जुटी है। इसके लिए आवश्यक है कि उनको आर्थिक स्वतंत्रता दी जाए। आर्थिक रूप से सदृढ़ बनाया जाए। इसी मुहिम के तहत अब पंचायतें 20 लाख रुपये के कार्य को मंजूरी प्रदान कर सकेंगी। इससे पहले यह सीमा 10 लाख रुपये थी। सरकार की मंशा है कि भविष्य में इस सीमा को और बढ़ाया जाए। इसी तर्ज पर जिला परिषदों व ब्लॉक समितियों के वित्तीय अधिकार बढ़ाने की तैयारी चल रही है। यह उचित भी है और आवश्यक भी। गांवों के विकास के लिए यह जरूरी है कि योजनाएं और निर्णय गांव की चौपाल पर ही लिए जाएं। अभी तक दिक्कत यह थी कि गांवों की आवश्यकता को समझे बगैर अफसर योजनाएं बना लेते थे और इसके कई बार दुष्परिणाम भी होते थे। फिलहाल इस निर्णय से बहुत अधिक बदलाव आएगा, ऐसा तो नहीं है। हां, सुधार की ओर कुछ कदम हम बढ़ा ही चुके हैं।
अफसरशाही और सत्ता में बैठे लोग अधिकारों के विकेंद्रीकरण को तैयार नहीं है। इसीलिए पंचायतों को सशक्त बनाने की राह में ऐसी शक्तियां अकसर बाधा बन जाती हैं। कभी अशिक्षा का तर्क दिया जाता है और कभी भ्रष्टाचार बढ़ने की आशंका का। इन सब के बीच एक बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि पंचायतें समस्या को बेहतर समझती भी हैं और उनके समाधान खोजने में भी सक्षम हैं। अगर आवश्यकता पंचायत प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण देने की है तो यह व्यवस्था करवाना शासन की जिम्मेवारी है। दूसरा, गांव स्तर पर ही निगरानी व्यवस्था मजबूत कर भ्रष्टाचार की आशंका को कम किया जा सकता है। पुरातन समय में गांव आर्थिक तौर पर स्वतंत्र इकाई की तरह कार्य करते थे। तब न रोजगार की समस्या रहती थी और न कोई दुर्भाव था। अब भी गांव या कुछ गांवों का समूह बनाकर उसके विकास की योजना बने। इस कलस्टर में वहीं के लोग उत्पादन करें और उनसे जो बचे बाहर भेजा जा सके। स्थानीय लोगों को ही रोजगार दिया जाए। ग्रामीण जब समस्याओं व चुनौतियों से दो-चार होंगे तो वह स्वयं इसका समाधान भी अपने तरीके से खोजने का प्रयास करेंगे। प्रशासन व सरकार का कार्य केवल सुविधा मुहैया कराने तक सीमित रहना चाहिए। गांवों को स्वावलंबी और आर्थिक रूप से सक्षम बनाने के लिए पंचायतों को सशक्त करना जरूरी है।

[ स्थानीय संपादकीय : हरियाणा ]