--------
सेना के लिए असलाह बारूद ढोने के लिए तमाम मुश्किलों को झेला, करीब दस पोर्टरों ने शहादत का जाम पीया
--------
कारगिल युद्ध के दौरान सेना का कंधे से कंधा मिलाकर साथ देने वाले जम्मू संभाग के पोर्टरों को सैनिक के समकक्ष तमाम लाभ देने का सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का सरकार की ओर से पालन नहीं हो पाना दुर्भाग्यपूर्ण है। विडंबना यह है कि जम्मू संभाग के करीब पांच सौ पोर्टरों ने वर्ष 1999 में सेना के लिए असलाह बारूद ढोने के लिए तमाम उन मुश्किलों को झेला जितना सेना के जवानों ने। इतना ही नहीं, इनमें से करीब दस पोर्टरों ने शहादत का जाम पीया। देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह मान लिया कि पोर्टरों ने देश के लिए जो जज्बा दिखाया वह सैनिकों से कम नहीं था। फिर उन्हें सेना के समकक्ष तमाम लाभ से वंचित क्यों किया जा रहा है? जब सेना को इन पोर्टरों की जरूरत थी तो उन्हें आश्वासन दिया गया था कि युद्ध के बाद उन्हें सेना में भर्ती कर लिया जाएगा। सैन्य अधिकारियों ने उन्हें केवल प्रशस्तिपत्र ही दिए। युद्ध के दौरान उन्हें कुछ रुपये जरूर दिए गए, लेकिन समय के साथ इसे भी बंद कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को आए करीब नौ महीने बीत चुके हैं, लेकिन अभी भी इन बेरोजगारों को सरकार ने उनके अधिकार नहीं दिए हैं। हद तो यह है कि कई पोर्टर उम्रदराज हो चुके हैं। कइयों ने अपना छोटा-मोटा रोजगार खोल लिया है। अधिकतर ऐसे भी हैं, जिन्होंने बीस साल इसी उम्मीद में गुजार दिए कि एक दिन उन्हें सरकार सभी लाभ देगी। देश के ये सच्चे सपूत सेना में अपने परिवार के किसी सदस्य या बच्चों को जगह देने की बात कर रहे हैं। विगत दिवस जम्मू संभाग के सैकड़ों पोर्टरों ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ प्रदर्शनी मैदान के बाहर धरना प्रदर्शन कर सरकार से अपना हक मांगा। सरकार के साथ सैन्य मंत्रालय का भी दायित्व बनता है कि वह पोर्टरों को उनके लाभ दे। इन पोर्टरों के जज्बे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि अभी भी ये पोर्टर देश पर किसी भी संकट के समय साथ खड़े होने के लिए तैयार हैं। एक ओर सरकार अलगाववादियों के इलाज के लिए सभी खर्चे उठा रही है, दूसरी ओर देशभक्त अपने अधिकार से आज तक वंचित हैं। कोर्ट के निर्देशों का पालन करना ही सरकार के लिए सही होगा।

[ स्थानीय संपादकीय : जम्मू-कश्मीर ]