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कोई सुविधा न मिलने के कारण बीस फीसद ट्रैफिक कर्मी दमा, तपेदिक , खांसी और फेफड़ों की बीमारी से ग्रस्त हैं। मौसम की मार से बचाने के लिए शेड का होना जरूरी है
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शहरों की सड़कों पर दौड़ रहे ट्रैफिक को व्यवस्थित करने में लगे ट्रैफिक कर्मियों के लिए कोई शेड न होना, उनके सेहत से खिलवाड़ है। अप्रैल के महीने में तापमान 38 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया है, लेकिन खुले आसमान के नीचे ड्यूटी देना उनकी मजबूरी बन गई है। विडंबना यह है कि पुलिस को आधुनिक बनाने के उद्देश्य से करोड़ों रुपये की राशि आवंटित की जाती है। हद तो यह है कि शहर के प्रमुख चौराहों पर ट्रैफिक बूथ नाम के रह गए हैं। टीन की चादरों से बने ये बूथ चारों तरफ से टूट चुके हैं। गर्मी के मौसम में तपती टीन के कारण इनमें बैठना भी संभव नहीं है। ये बूथ जगह घेरने का काम जरूर कर रहे हैं। जम्मू शहर के व्यस्त एशिया क्रॉसिंग, बिक्रम चौक व डोगरा चौक में जहां प्रदूषण का स्तर दिल्ली के किसी व्यस्त चौक से भी अधिक रहता है, वहां पर बिना मास्क के ड्यूटी दे रहे टै्रफिक कर्मियों की सेहत पर क्या असर डाल रहा होगा, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। एक सर्वे के मुताबिक, राज्य में बीस फीसद ऐसे ट्रैफिक कर्मी हैं, जो दमा, तपेदिक , खांसी और फेफड़ों की बीमारी से ग्रस्त हैं। नियमों के अनुसार, ट्रैफिक कर्मियों को मौसम की मार से बचाने के लिए शेड का होना जरूरी होता है। इतना ही नहीं शेड में पंखा, कूलर के अलावा पानी की व्यवस्था भी लाजमी है। इसके लिए कोई आवाज उठाने वाला भी नहीं है। विडंबना यह है कि रोजना शहर के इन प्रमुख चौराहों से मंत्री से लेकर पुलिस के आला अधिकारी गुजरते हैं, क्या उनकी नजर कभी खस्ताहाल ट्रैफिक शेड पर नहीं गई? अधिक गर्मी के कारण शरीर में पानी की कमी हो सकती है, धूप के कारण सन स्ट्रोक का भी डर रहता है। जब इस तरह की अव्यवस्थाएं होंगी तो ट्रैफिक कर्मी किस तरह बेहतर सेवाएं दे सकेंगे। सरकार को इनको बेहतर सुविधाएं मुहैया करवानी चाहिए। पुलिस को आधुनिक बनाने के नाम पर जो दावे किए जाते हैं, अगर उनमें से कुछ राशि ट्रैफिक कर्मियों के कल्याण में लगाई जाए तो सबका भला हो सकता है। अगर ट्रैफिक कर्मियों को ढांचागत सुविधाएं मिलेंगी तो उनमें वर्क कल्चर के साथ विश्वास भी बढ़ेगा। सरकार को चाहिए कि शहर के तमाम चौराहों पर अविलंब ट्रैफिक बूथ का निर्माण करवाए।

[ स्थानीय संपादकीय : जम्मू-कश्मीर ]