भुवनेश्वर में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने जिस तरह यह कहा कि अभी पार्टी अपने चरम पर नहीं पहुंची है और स्वर्णिम काल तब आएगा जब पूरे देश में पंचायत से लेकर हर प्रांत एवं संसद तक उसका शासन होगा उससे भाजपा के भावी इरादे और अधिक स्पष्ट हो गए हैं। भाजपा के इन इरादों की झलक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान से भी प्रकट होती है कि अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ज्यादा से ज्यादा राज्यों में जीत हासिल करेगी। ये इरादे यही इंगित करते हैं कि भाजपा उन राज्यों में भी अपनी दमदार उपस्थिति चाहती है जहां वह सत्ता से दूर है। ओडिशा में राष्ट्रीय कार्यकारिणी का आयोजन भी इसी बात को रेखांकित करता है। हाल के विधानसभा चुनाव में भाजपा को जैसी सफलता मिली उसके बाद उसका विजय रथ तेजी से आगे बढ़ता दिख रहा है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा ने जैसी प्रचंड सफलता अर्जित की उसके बाद यह लगता भी नहीं कि विपक्षी दल उसके विजय रथ को रोकने में सक्षम होंगे। मोदी की लोकप्रियता किस तरह दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है, इसका पता भुवनेश्वर के बाद सूरत में भी उनके जोरदार स्वागत से चला।
इस पर आश्चर्य नहीं कि मोदी की बढ़ती लोकप्रियता से विपक्षी दलों की बेचैनी और अधिक बढ़ गई है। इस बेचैनी की झलक विपक्षी दलों के नेताओं के बयानों में भी दिख रही है। एक के बाद एक प्रमुख विपक्षी नेता भाजपा के खिलाफ एकजुट होने को वक्त की जरूरत बता रहे हैं। स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश में भी बिहार की तरह गठबंधन बनने के आसार बढ़ गए हैं। पहले मायावती ने ऐसे किसी गठबंधन की संभावना को रेखांकित किया और फिर अखिलेश यादव ने भी। हालांकि मुलायम सिंह ने ऐसे किसी गठबंधन की संभावना को खारिज किया है, लेकिन इसमें संदेह है कि अन्य विपक्षी दल और यहां तक कि अखिलेश यादव उनके विचारों से सहमत होंगे। भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों की एकजुटता की यह कोशिश नई नहीं है। ऐसी कोशिश पहले भी होती रही है, लेकिन ऐसा लगता है कि अब विपक्षी दलों के सामने एकजुट होने के अलावा और कोई उपाय नहीं रह गया है। विपक्षी दलों की ऐसी स्थिति का कारण निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह हैं। इन दोनों नेताओं को इसके लिए श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे देश को द्विदलीय राजनीतिक व्यवस्था की ओर ले जाते हुए दिख रहे हैं। ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण राजनीति के हित में है। राजनीतिक दलों की भारी भीड़ का कोई औचित्य नहीं। इसमें हर्ज नहीं कि समान विचारधारा वाले दल गोलबंद हो जाएं, लेकिन यह गोलबंदी विचारों के आधार पर होनी चाहिए। फिलहाल ऐसा नहीं दिख रहा है, क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के बहाने मायावती और अखिलेश एकजुट होने की कोशिश करते दिख रहे हैं। यह और कुछ नहीं, जनता के फैसले को नामंजूर करने की जिद है। ऐसी ही जिद का प्रदर्शन नोटबंदी के बाद अन्य दलों ने भी किया था। स्पष्ट है कि यदि विपक्षी दल एकजुट होने के लिए ऐसे ही मुद्दों को आधार बनाएंगे तो इसमें संदेह है कि वे जनता को अपनी ओर आकर्षित कर सकेंगे।

[ मुख्य संपादकीय ]