पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस के अंदर से ही बेचैनी भरे जैसे स्वर सुनाई दे रहे हैं, वह कोई नई-अनोखी बात नहीं। कांग्रेस जब-जब चुनाव हारती है तब-तब ऐसा ही होता है, लेकिन कुछ समय बाद सबकुछ पहले की तरह चलने लगता है। एक बार फिर ऐसा ही हो तो हैरत नहीं, क्योंकि नेतृत्व यानी गांधी परिवार की शान में गुस्ताखी मंजूर नहीं। जो कुछ कहने की हिम्मत दिखाते हैं, उन्हें दरवाजा दिखा दिया जाता है।

लोकसभा चुनावों के बाद राहुल गांधी की आलोचना करने वालों के साथ ऐसा ही हुआ था। लोकसभा चुनावों में पराजय के कारणों की गहन समीक्षा करने की बातें की गई थीं। समीक्षा के लिए वरिष्ठ नेता एके एंटनी के नेतृत्व में समिति गठित कर यह प्रकट करने की कोशिश की गई थी कि अपनी सबसे बुरी पराजय को लेकर पार्टी बहुत गंभीर है, लेकिन अंतत: कुछ नहीं हुआ। एंटनी समिति की रपट धूल फांकने को विवश हुई और इस बीच एक के बाद एक राज्य में पार्टी खेत होती रही।

पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद एक बार फिर राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता सवालों के घेरे में है, लेकिन कोई कुछ कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। दिग्विजय सिंह ने यह सही कहा कि बहुत हो चुका आत्ममंथन, अब कुछ बड़े फैसले करने की जरूरत है। बावजूद इसके यह जानना कठिन है कि बड़े फैसले अथवा सर्जरी की जरूरत से उनका आशय क्या है? कहीं वह यह तो नहीं कहना चाह रहे हैं कि राहुल गांधी को तत्काल प्रभाव से अध्यक्ष पद प्रदान कर दिया जाए? जो भी हो, कांग्रेस की मुश्किल यह है कि उसका गांधी परिवार के बगैर गुजारा नहीं और पार्टी की बागडोर संभालने की तैयारी कर रहे राहुल राजनीति करने और उसे सीखने के प्रति इच्छुक नहीं दिख रहे।

वह यकायक सक्रिय होते हैं और फिर लुप्त से हो जाते हैं। उनकी राजनीतिक सक्रियता भी अजीब है। कभी वह प्रधानमंत्री के सूट के पीछे पड़ जाते हैं तो कभी गांव-गरीबों तक दौड़ लगाते हैं या फिर अपनी ही सरकार की योजनाओं और कार्यक्रमों के विरोध में खड़े हो जाते हैं। 1 कांग्रेस एक तरह से अपने ही जीएसटी विधेयक की राह रोके खड़ी है और वह भी हास्यास्पद तर्को के सहारे। उसका बस चलता तो वह आधार योजना को कानूनी रूप भी नहीं देने देती।

क्या यह विचित्र नहीं कि आधार संबंधी विधेयक पारित होने के बाद भी कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और इस काम में वकीलों के रूप में मदद की दो अन्य कांग्रेसी नेताओं ने? राहुल के राजनीतिक प्रयोग भी गजब के हैं। वह आम युवाओं को राजनीति में आगे बढ़ाने चले थे और खुद ऐसे युवा नेताओं से घिर गए, जो परिवारवाद की राजनीति का चेहरा हैं।

बिहार में लालू यादव से हाथ मिलाने के बाद उन्होंने पश्चिम बंगाल में उन वाम दलों से हाथ मिलाया, जिनसे कांग्रेस हमेशा लड़ती रही और जो केरल में उसे हराने के लिए कमर कसे थे। यह सबसे बेढब और सिद्धांतहीन राजनीतिक समझौता इसीलिए हुआ, क्योंकि राहुल ने उसे स्वीकृति दी। अगर राहुल अपनी ऐसी ही राजनीतिक समझ का परिचय देते रहे और पार्टी का नेतृत्व भी करते रहे तो कांग्रेस का कुछ नहीं हो सकता। यदि नेतृत्व के स्तर पर बदलाव संभव नहीं तो फिर राहुल को खुद को बदलना ही होगा।

(मुख्य संपादकीय)