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बंगाल की बदनीयत का प्रमाण पटना में तत्कालीन मुख्यमंत्री के साथ हुए उस समझौते का दस्तावेज है जिसकी शर्तों की उपेक्षा बंगाल सरकार ने की।
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यह आरोप मिथ्या नहीं है कि अखंड बिहार के समय से ही नदी-जल के बंटवारे को लेकर बंगाल की नीयत साफ नहीं रही है। अखंड बिहार (अब झारखंड) के सीने पर आपसी साझेदारी से बंगाल की तत्कालीन ज्योति बसु सरकार ने जो भी डैम बनाए, उसके पानी का उपयोग समझौते की शर्तों का उल्लंघन करते हुए अपने हित में किया। बंगाल की बदनीयत का पुख्ता प्रमाण 19 जुलाई 1978 को पटना में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के साथ हुए उस समझौते का दस्तावेज है जिसकी शर्तों की घोर उपेक्षा बंगाल सरकार ने की। यह समझौता दामोदर, बराकर, अजय, मयूराक्षी, सिद्धेश्वरी नूनबील और महानंदा रिजर्व बेसिन को लेकर हुआ था। इसमें यह साफ प्रावधान था कि बंगाल की सरकार पुनर्वास व निर्माण के खर्च के साथ चार रिजर्वायर का निर्माण इस रूप में करेगी जिससे झारखंड की भूमि सिंचित होगी। लेकिन, ऐसा आज तक नहीं हो सका। जो व्यवस्था सिद्धेश्वरी नून बील डैम के जरिए बंगाल सरकार को करनी थी, उसका पूरा-पूरा लाभ सिंचाई के अभाव में मरुभूमि बन रही संताल की मिट्टी को होता। यह भी उस शर्त में दर्ज है कि रानेश्वर ब्लॉक (दुमका) के किसानों के लिए 10 हजार एकड़ फीट जल की निश्शुल्क व्यवस्था बंगाल सरकार को करनी थी। यह भी बहुत स्पष्ट लिखा था कि भूमि अधिग्रहण से लेकर पुनर्वास तक का खर्च बंगाल सरकार को उठाना था। मैथन, पंचेत व मसानजोर में भी जो डैम बनाए गए हैं, उसके सिंचित जल का अधिकतम उपभोग बंगाल की भूमि के लिए हो रहा है। ये डैम भले ही झारखंड के कलेजे पर यहां के लोगों को विस्थापित कर बने हों, लेकिन झारखंड के किसानों के खेत सूखे रह गए। एक ऐसे समय में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर मुख्यमंत्री रघुवर दास तक संताल के समग्र एवं समावेशी विकास की बात करते हैं, ऐसे में इस समझौते पर फिर से विचार करने की जरूरत आन पड़ी है। गोड्डा के सांसद निशिकांत दुबे लोकसभा में यह सवाल उठा चुके हैं कि संतालपरगना के लोग बंगाल की वादाखिलाफी की सजा कब तक भुगतेंगे? झारखंड सरकार और केंद्र सरकार, दोनों के लिए यह एक समयानुकूल मौका है कि सांसद के उठाए सवाल को किसानों का हित मानकर परिणति तक पहुंचाएं।

[ स्थानीय संपादकीय : झारखंड ]