............
यह गंभीर विषय है कि बच्चे स्कूल तक कैसे सुरक्षित पहुंचें, लेकिन इस पर न तो सरकारी और न ही सामाजिक स्तर पर कोई विचार हो रहा है।
.............
ये वो फूल हैं जो अव्यवस्था की रगड़ हर दिन सहते हैं। कभी ढीले नियमों के वाहन में धक्के खाते हैं तो कभी चालक की लापरवाही में हादसा बन जाते हैं। बीते कुछ सालों में आम आदमी शिक्षा के प्रति जागरूक हुआ है, बच्चों का स्कूलों में पंजीकरण भी बढ़ा है। स्कूलों में ब्लैक बार्ड, शौचालय, बिजली व पुस्तकालय जैसी जरूरतों से लोगों के सरोकार बढ़े हैं। लेकिन, बच्चों के स्कूल तक सुरक्षित पहुंचने के सबसे गंभीर मसले पर न तो सरकारी और न ही सामाजिक स्तर पर कोई विचार हो रहा है। आए दिन स्कूली बच्चों की जान जोखिम में पडऩे के दर्दनाक हादसे सुनाई देते हैं। ये पक्ष व्यवस्था को भी देखने चाहिए और समाज को भी। ताजा मामला सुंदरनगर उपमंडल की डैहर का है, जहां एक निजी स्कूल की बस ओवरटेक करते समय खाई में गिर गई। हादसे में स्कूल बस में सवार 32 बच्चे घायल हो गए, जबकि बस की क्षमता मात्र 24 बच्चे ले जाने की थी। राजधानी शिमला सहित प्रदेश के अन्य कस्बों तक निजी स्कूलों में बच्चों की आमद जिस तरह से बढ़ी है, उसको देखते हुए बच्चों के सुरक्षित, सहज और सस्ते आवागमन पर जिस तरह की नीति की जरूरत है, वह नदारद है। स्कूलों में पहुंचने का समय लगभग एक है। सुबह साढ़े सात से आठ बजे के बीच। सड़कें हर सुबह वैन, निजी दुपहिया वाहनों से भरी होती हैं। राजधानी शिमला में घंटों जाम लगता है। पांच या छह लोगों के बैठने के लिए परिवहन विभाग से लाइसेंस पाए वाहन में 12 से 15 बच्चे ठंूसे गए होते हैं। हालांकि यह गैरकानूनी है, लेकिन न तो अभिभावक इसकी चिंता करते हैं और न स्कूल। यहां यह भी गौर करना जरूरी है कि अधिकांश स्कूलों के लिए निजी बसों या अन्य वाहनों को किराये पर ली जाती है। बच्चों को उतारना और फिर जल्दी-जल्दी में अपनी जगह जाने की फिराक में चालक यह ध्यान ही नहीं रखते हैं कि व बच्चों को ले जा रहे हैं सब्जी या राशन का सामान नहीं। यह किसी एक क्षेत्र की की कहानी नहीं है बल्कि प्रदेश के हर कस्बे व शहर में आम बात है। सरकार को चाहिए कि इस दिशा में सुरक्षित परिवहन व्यवस्था, स्कूली बच्चों के लिए प्रयुक्त वाहनों में ओवरलोडिंग या अधिक रफ्तार से चलान पर कड़ी सजा का प्रावधान जैसे काम हो। साथ ही समय समय पर चैकिंग भी हो। जितना ध्यान वीआइपी आवागमन पर दिया जाता है, काश, उसका थोड़ा-सा भी बच्चों के आवागमन पर दिया जाए, तो नई पौध सुरक्षित हो।

[ स्थानीय संपादकीय : हिमाचल प्रदेश ]