नक्सलियों के सफाये के लिए आपरेशन प्रहार के नाम से जो नया अभियान शुरू हुआ है उसकी सफलता इस पर निर्भर करेगी कि नक्सलियों की पूरी तौर पर कमर टूटती है या नहीं? ऐसे किसी अभियान का अंतिम लक्ष्य देश के हर उस हिस्से में नक्सलियों का खात्मा होना चाहिए जहां पर वे किसी भी रूप में सक्रिय हैं। भले ही यह अभियान लंबा चले, लेकिन कोशिश यह होनी चाहिए कि उनके तंत्र को जड़-मूल से नष्ट करने में सफलता मिले। ऐसा इसलिए, क्योंकि अतीत में कई बार ऐसे अभियान चले और चूंकि नक्सलियों को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सका इसलिए वे नए सिरे से संगठित होकर आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बन गए।

आपरेशन प्रहार की सफलता के लिए यह आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है कि सभी संबंधित राज्यों की पुलिस एवं अन्य सुरक्षा बल इस अभियान में सक्रिय रूप से शामिल हों। यह ठीक है कि इस अभियान को छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के एक प्रमुख गढ़ से शुरू किया गया है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यह वह इलाका है जिसकी सीमाएं कई पड़ोसी राज्यों से मिलती हैं। इसका फायदा उठाकर नक्सली एक राज्य से दूसरे राज्य में छिपने में सफल होते रहते हैं। यह भी देखने में आया है कि जब किसी एक राज्य में नक्सलियों पर दबाव बढ़ता है तो पड़ोसी राज्य भी अपनी ओर से उन पर दबाव डालते नहीं दिखे।

एक समस्या यह भी रही है कि इसका पता लगाने की कोई गहन कोशिश नहीं हुई कि नक्सलियों को आधुनिक हथियार एवं विस्फोटक कहां से प्राप्त होते हैं? नक्सलियों से निपटने के मामले में इस हिचक को तोड़े जाने की जरूरत है कि उनके खिलाफ सैन्य तंत्र का इस्तेमाल किया जाए या नहीं? यदि नक्सली आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं और वे भारतीय कानून और संविधान को मानने के लिए तैयार नहीं तब फिर यह कहने का कोई मतलब नहीं कि वे भटके हुए अपने ही लोग हैं। आखिर जब ऐसे कथित भटके हुए अपने लोगों के खिलाफ कश्मीर और पूर्वोत्तर में सैन्य तंत्र का सहारा लिया जा सकता है तो छत्तीसगढ़ में क्यों नहीं? इससे बड़ी विडंबना कोई और नहीं हो सकती कि नक्सलियों के हाथों मारे गए अथवा घायल जवानों को घटनास्थल से बाहर निकालने में तो सैन्य तंत्र की सहायता ली जाती है, लेकिन नक्सलियों का मुकाबला करने में नहीं।

इस गलत रणनीति का कुल मिलाकर नक्सलियों ने फायदा ही उठाया है। इस रणनीति को छोड़ देना ही बेहतर है। नक्सलवाद से निपटने के लिए एक ओर जहां सुरक्षा बल को पर्याप्त अधिकार एवं संसाधन मुहैया कराने की जरूरत है वहीं दूसरी ओर उन कारणों का निवारण करने की भी आवश्यकता है जिनका सहारा लेकर नक्सली आदिवासियों एवं अन्य ग्रामीण लोगों को बहकाते हैं। चिंताजनक यह भी है कि नक्सलियों के दुष्प्रचार को आगे बढ़ाने का काम कई तथाकथित बुद्धिजीवी भी कर रहे हैं। वे घुमा-फिराकर नक्सलियों के तौर-तरीकों का तो बचाव करते ही हैं, आपरेशन प्रहार सरीखी पहल के खिलाफ माहौल भी बनाते हैं। जाहिर है कि ऐसे कथित बुद्धिजीवियों और साथ ही नक्सलियों के हमदर्द नेताओं से भी सावधान रहने की जरूरत है।

[राष्ट्रीय संपादकीय]