केंद्र सरकार के इस फैसले की मुक्त कंठ से सराहना होनी चाहिए कि आगामी एक मई से विशिष्ट-अतिविशिष्ट व्यक्तियों की कारों में लाल बत्ती का इस्तेमाल नहीं होगा। यह फैसला इसलिए और स्वागतयोग्य है कि किसी को भी लाल बत्ती का इस्तेमाल करने की रियायत नहीं दी गई। चूंकि फैसले के सार्वजनिक होते ही अनेक केंद्रीय मंत्रियों के साथ कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी अपनी कारों से लाल बत्ती हटवा दी इसलिए यह स्पष्ट ही है कि अधिकारी शायद ही एक मई का इंतजार करें। इस फैसले को एक मई अर्थात श्रमिक दिवस से लागू करने का फैसला यही बता रहा है कि मोदी सरकार मेहनतकश लोगों को एक खास संदेश देना चाहती है। लाल बत्ती महज एक अतिरिक्त सुविधा भर नहीं, बल्कि एक ऐसी संस्कृति का प्रतीक बन गई थी जिसका लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं होना चाहिए था। आखिर इसका क्या औचित्य कि महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग लाल बत्ती के जरिये विशिष्ट दिखने का काम भी करें। आम तौर पर लाल बत्ती वाहन से लैस व्यक्ति राजा और प्रजा वाला माहौल निर्मित करते हुए जनता को यही संदेश देते थे कि वे उनसे अलग और विशिष्ट हैं। यह आश्चर्यजनक है कि ऐसी सामंती मानसिकता का प्रतिनिधित्व करने वाली लाल बत्ती से मुक्ति पाने में इतना समय लग गया। नि:संदेह यह साधारण सी बात समझने में इतनी देर नहीं लगनी चाहिए थी कि चंद लोगों की ओर से विशिष्ट दिखने वाला कोई आचरण लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है।
हालांकि लाल बत्ती के खिलाफ लंबे समय से आवाजें उठ रही थीं और हाल में पंजाब और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों ने उसका इस्तेमाल करना बंद भी कर दिया था, लेकिन उनकी पहल का प्रभाव सीमित ही था। लाल बत्ती संस्कृति को खत्म करने के लिए वैसे ही किसी फैसले की जरूरत थी जैसा गत दिवस केंद्रीय कैबिनेट ने लिया। अच्छा यह होगा कि केंद्र सरकार केवल यहीं तक सीमित न रहे। उसे उन अन्य प्रतीकों और परंपराओं की पहचान कर उन्हें खत्म करने की जरूरत है जो वीआइपी संस्कृति का पोषण करते हैं। इस पर विचार होना चाहिए कि हवाई अड्डों पर कुछ खास लोगों को अतिरिक्त सुविधा क्यों दी जाती है? आखिर टोल नाकों पर केवल आम लोगों को ही पैसा क्यों देना चाहिए? इसी तरह क्या कारण है कि ढेर के ढेर कथित विशिष्ट लोगों को बिना जरूरत सरकारी सुरक्षा क्यों हासिल है? यह किसी से छिपा नहीं कि तमाम लोग महज विशिष्ट दिखने के लिए सरकारी सुरक्षा से लैस रहते हैं। वीआइपी संस्कृति को पुष्ट करने वाले प्रतीकों एवं परंपराओं और सुविधाओं तथा रियायतों को खत्म करने के साथ ही यह भी कोशिश होनी चाहिए कि महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग वास्तव में लोक सेवकों वाली मानसिकता से लैस हों। आज स्थिति यह है कि वे कहलाते तो लोक सेवक हैं, लेकिन उनका आचार-व्यवहार इसके उलट दिखता है। यह सही समय है जब शासन और प्रशासन के तौर-तरीकों में व्यापक सुधार के लिए नए सिरे से कोशिश हो। बेहतर होगा कि द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रपट की सुधि ली जाए। जब शासन-प्रशासन लोकतांत्रिक मूल्यों से लैस होगा तभी समाज सच्चे अर्थों में देश लोक का तंत्र बनेगा।

[ मुख्य संपादकीय ]