प्रदेश सरकार प्रदूषण की बढ़ती समस्या से निदान के लिए करीब ढाई लाख डीजल वाले ऑटो को सड़कों से हटाने की तैयारी कर रही है। शहरों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में बदलाव के मद्देनजर यह क्रांतिकारी कदम हो सकता है, परंतु इतना बड़ा निर्णय सहज से लागू हो पाएगा, इसमें संदेह है। पिछले डेढ़ दशक के दौरान प्रदेश में शहरीकरण की रफ्तार तेजी से बढ़ी, उस अंदाज में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में सुधार नहीं हो पाया। यह कहें कि सार्वजनिक परिवहन की पुरातन व्यवस्था भी धराशायी हो गई और उसके स्थान पर अनियंत्रित ऑटो ने उसकी जगह ले ली। प्रशासनिक उदासीनता और ठोस नीति के अभाव में धीरे-धीरे यह कामचलाऊ व्यवस्था परेशानी का कारण बन गई। अब सरकार अचानक इस व्यवस्था को बदलने की योजना बना रही है। चूंकि प्रदेश में ऑटो की संख्या लाखों में है और यह मामला रोजगार से भी जुड़ा है ऐसे में कोई भी बदलाव सहज नहीं होगा। ऑटो चालकों के आर्थिक हित भी देखना आवश्यक है।
केंद्र की भी मंशा है कि देश में डीजल व पेट्रोल के वाहनों को धीरे-धीरे हटा लिया जाए। प्रदेश सरकार भी करीब दो लाख ऑटो चालकों को सीएनजी व बिजली से चलने वाले ऑटो खरीदने के लिए सस्ता कर्ज देगी। निश्चित तौर पर इससे शुरुआती तौर पर तो प्रदूषण की स्थिति से कुछ राहत मिलेगी लेकिन शहरों में जाम की समस्या ज्यों की त्यों बनी रहेगी। आवश्यकता है कि बी व सी श्रेणी के शहरों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को सुचारु बनवाने के लिए ठोस उपाय भी किए जाएं। यह भी तय है कि वहां मेट्रो जैसे बड़े प्रोजेक्ट लाना सहज नहीं है, लेकिन सिटी परिवहन को सुचारु बनाने के तरीके खोजने होंगे। मिनी बस व सिटी बस सेवा का दायरा बढ़ाया जाए। ऑटो व रिक्शा को शहर के भीतरी हिस्सों में कनेक्टिविटी बढ़ाने तक ही सीमित रखा जाए। कार ले जाने की आदत को हतोत्साहित किया जाए। कुछ बड़े शहरों में यह व्यवस्था अधिक कारगर हुई भी है। छोटे शहरों में अभी भी विकास की रफ्तार तेज ही रहने वाली है, ऐसे में सुनियोजित विकास का खाका पहले से तैयार कर लिया जाए तो फिर शहर में यह सब समस्याएं नहीं रहेंगी। नियम बनाना सहज है पर उनके अनुपालन की व्यवस्था भी सशक्त हो तो फिर तेज विकास के दुष्प्रभावों को नियंत्रित किया जा सकता है।

[ स्थानीय संपादकीय : हरियाणा ]