उद्योगों से निकलने वाले कचरे पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती स्वागतयोग्य है, लेकिन इसके प्रति सुनिश्चित होना कठिन है कि राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड उन कल-कारखानों पर कोई लगाम लगा सकेंगे जो शोधन संयंत्रों से लैस नहीं या फिर उनका इस्तेमाल केवल दिखावे के लिए करते हैं। कायदे से तो ऐसे कारखाने होने ही नहीं चाहिए जो शोधन संयंत्रों का इस्तेमाल न करते हों, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का निर्देश यही इंगित कर रहा है कि ऐसे कारखाने अस्तित्व में हैं और वे अपना कचरा नदियों, तालाबों अथवा खुली जमीन में बहा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अनुसार अब राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यह देखेंगे कि सभी कारखाने शोधन संयंत्रों से लैस हों। उन्हें यह भी अधिकार दिया गया है कि वे शोधन संयंत्र न लगाने वाले कारखानों की बिजली आपूर्ति रोक दें। सवाल यह है कि क्या प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड़ों को अभी तक यह जानकारी नहीं थी कि बिना शोधन संयंत्र के कारखाने नहीं चलने चाहिए? वस्तुस्थिति यह है कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों का तो प्राथमिक दायित्व ही यह है कि वे सभी कारखानों को न केवल शोधन संयंत्रों से लैस कराएं, बल्कि यह भी देखें कि वे सही तरह काम कर रहे हैं या नहीं? इस दायित्व की किस तरह अनदेखी की जा रही है, इसका प्रमाण है गंगा एवं अन्य तमाम नदियों का प्रदूषण। नदियों के प्रदूषण में एक बड़ा हाथ उनके तट पर स्थापित उद्योग हैं।
कहने को तो नदियों के तट पर स्थापित उद्योग शोधन संयंत्रों से लैस हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि वे आधे-अधूरे ढंग से काम करते हैं। कई बार तो वे केवल तब चलते हैं जब प्रदूषण नियंत्रण विभाग के अधिकारियों के दौरे होते हैं। जैसे ही इन अधिकारियों का निगरानी दौरा खत्म होता है, शोधन संयंत्र काम करना बंद कर देते हैं और उद्योगों का विषाक्त कचरा जल या फिर जमीन में बहाया जाने लगता है। अतीत में कुछ ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जिनमें कारखाने अपना विषाक्त कचरा रिवर्स बोरिंग के जरिये जमीन के अंदर छोड़ रहे थे। यदि सुप्रीम कोर्ट औद्योगिक कचरे की समस्या के समाधान को लेकर गंभीर है तो फिर उसे राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को जवाबदेह बनाना चाहिए। औद्योगिक कचरा रोकने में नाकाम अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। इतना ही नहीं प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की सुस्ती और नाकामी के लिए राज्य सरकारों की भी खबर ली जानी चाहिए। यह ठीक नहीं कि उन्हें चेतावनी देकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। चूंकि राज्य सरकारें प्रदूषण की रोकथाम के मामले में गंभीर नहीं इसलिए नदियों, तालाबों और अन्य जल स्नोतों के साथ भूमिगत जल भी दूषित हो रहा है। इसकी रोकथाम के लिए न्यायपालिका के स्तर पर पहले भी आदेश-निर्देश दिए जा चुके हैं, लेकिन कोई उल्लेखनीय सुधार होता नहीं दिख रहा है। इसका एक कारण यह है कि अदालतों के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं जिससे वे यह देख सकें कि उनके आदेशों का पालन हो रहा है या नहीं? चूंकि प्रदूषण की रोकथाम के मामले में उच्चतर न्यायपालिका की तमाम सख्ती के बावजूद हालात बदले नहीं इसलिए बेहतर होगा कि सुप्रीम कोर्ट यह भी देखे कि उसका दखल समस्या के समाधान में सहायक क्यों नहीं बन पा रहा?

[ मुख्य संपादकीय ]