संसद के सेंट्रल हाल में अपने विदाई समारोह के अवसर पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संसद में गंभीर चर्चा के अभाव पर जो कुछ कहा उस पर सभी राजनीतिक दलों को गंभीरता से विचार करना चाहिए। यह विचार इसलिए आवश्यक है, क्योंकि हर कोई यह महसूस कर रहा है कि संसद में अब वैसी चर्चा नहीं होती जैसी आवश्यक है और जिसके लिए संसद जानी जाती रही है। हाल के समय में देखें तो पिछले तीन वर्षों में मुश्किल से दो-तीन अवसर ऐसे आए हैं जब संसद के दोनों सदनों में किसी मसले पर गंभीर और सार्थक चर्चा हुई हो। उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो जीएसटी विधेयक के दौरान हुई चर्चा ही ऐसी थी जिसे सकारात्मक और संसद की गरिमा के अनुरूप कहा जा सकता है। यह पहली बार नहीं है जब प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति के रूप में संसद में चर्चा के गिरते स्तर पर चिंता जताई हो। वह यह काम राष्ट्रपति पद पर आसीन होने के बाद से ही करते चले आ रहे हैं। कई बार तो उन्होंने राष्ट्र के नाम संदेश में भी इसका जिक्र किया कि संसद में हंगामा कुछ अधिक होने लगा है। इतना ही नहीं वह गंभीर बहस की महत्ता को भी रेखांकित करते रहे हैं। उन्होंने समय-समय पर सांसदों को यह भी याद दिलाया है कि असहमति के नाम पर गतिरोध नहीं पैदा किया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि राजनीतिक दलों ने इन सब बातों पर सही तरीके से चिंतन-मनन किया है। विडंबना यह है कि सत्तापक्ष में रहते समय राजनीतिक दल विपक्ष से जैसे व्यवहार की अपेक्षा करते हैं, विपक्ष में बैठने के दौरान वैसा ही करने से इन्कार करते हैं।
इसमें कहीं कोई संशय नहीं कि जनता की आकांक्षाओं का सर्वोच्च मंच अर्थात संसद अब हंगामे और हो-हल्ले के लिए ही अधिक जानी जाती है। कई सत्र ऐसे रहे हैं जिनमें ना के बराबर काम हुआ। सबसे विचित्र यह रहा कि जिन मसलों की आड़ में संसद के किसी सत्र को बाधित किया गया उनकी सुधि अगले सत्र में ली ही नहीं गई। चूंकि ऐसे कई प्रकरण देखने को मिल चुके हैं इसलिए इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं कि राजनीतिक दल अपने संसदीय आचरण से संसद की गरिमा की परवाह नहीं कर रहे हैं। संसद में बहस की गंभीरता को बनाए रखने के लिए दोनों ही पक्षों को सक्रिय होना होगा। उन्हें उन कारणों पर गौर करना होगा जिनके चलते संसद सुचारू रूप से नहीं चल पाती। नि:संदेह बात तब बनेगी जब इन कारणों का निवारण किया जाएगा। पिछले कुछ समय से यह भी देखने में आ रहा है कि लोकसभा से अधिक हल्ला-हंगामा राज्यसभा में होने लगा है। ऐसे आंकड़े संसद की गरिमा की रक्षा नहीं कर सकते कि लोकसभा के मुकाबले राज्यसभा में काम के घंटों की कहीं अधिक बर्बादी हुई। राज्यसभा को न केवल उच्च सदन के रूप में जाना जाता है, बल्कि यह मान्यता भी है कि यह वह सदन है जिसमें दलगत हितों से परे हटकर और कहीं अधिक नीर-क्षीर ढंग से चर्चा की जाती है। दुर्भाग्य से अब इसका उलट देखने को मिल रहा है। राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि संसद में उनके व्यवहार की झलक विधानसभाओं में भी दिखने लगी है। आज स्थिति यह है कि शायद ही किसी विधानसभा में कभी कोई गंभीर चर्चा होती हो।

[ मुख्य संपादकीय ]