उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन तंत्र एक बार फिर सवालों के घेरे में हैं। रविवार और सोमवार को प्रदेश ने 'रोआनूÓ का रौद्र रूप देखा तो यह रूह कंपाने वाला साबित हुआ। तूफान में देहरादून जिले के त्यूणी क्षेत्र में दस लोगों को जान चली गई। इतना ही नहीं राज्य के अन्य भागों में भी जान-माल का नुकसान हुआ। तूफान से हरिद्वार जिले में ही डेढ़ सौ से ज्यादा बिजली के खंभे उखड़ गए तो गंगोत्री-यमुनोत्री क्षेत्र में सैकड़ों वृक्ष धराशायी हुए। उत्तराखंड के शहरी और ग्रामीण क्षेत्र घंटों अंधेरे में डूबे रहे। दरअसल, 80 से 100 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से चली हवाओं ने सबकुछ उलट पलट दिया। ये ही वक्त था जब आपदा प्रबंधन तंत्र की परीक्षा होनी थी, लेकिन अफसोस तंत्र को अभी और चुस्त-दुरुस्त करने की आवश्यकता है। त्यूणी में हुए हादसे के सात घंटे बाद शव निकाले जा सके। यह अभियान राजस्व पुलिस, रेगुलर पुलिस और ग्रामीणों ने चलाया। वहां पहुंची टीम के पास संसाधनों का अभाव था। विशाल चट्टान को तोडऩे के लिए उनके पास कोई उपकरण नहीं थे। आखिरकार कंप्रेशर मंगाकर चट्टान तोडऩे का निर्णय लिया गया। इसमें खासा समय जाया हुआ। दूरस्थ क्षेत्रों में होने वाले हादसों में अक्सर इस तरह की दिक्कतें महसूस की जा रही हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जो राज्य वर्ष 2013 की आपदा में इतना कुछ गंवा चुका हो, क्या उसने कुछ भी सबक नहीं लिया। आपदा के बाद से सरकार लगातार आपदा प्रबंधन तंत्र को मजबूत करने के दावे कर रही है। बावजूद इसके त्यूणी की घटना दावों को आइना दिखाती प्रतीत हो रही है। जब मानसून से पहले यह हाल है तो चौमासे में क्या होगा। चार धाम यात्रा में श्रद्धालुओं का उत्साह दिखा रहा है कि हालात पटरी पर लौटे हैं। यह सुकून का विषय है कि इस साल यात्रा में उमड़ा सैलाब दर्शा रहा है कि उत्तराखंड की छवि बदली है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि आपदा के बाद वर्ष 2014 और 2015 में 'सुरक्षित उत्तराखंडÓ का संदेश देने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े थे। अभी मानसून आने में करीब एक माह का वक्त है। आपदा प्रबंधन की असल परीक्षा तभी होनी है। ऐसे में सरकार का दायित्व है कि वक्त का जाया किए बिना व्यवस्थाओं को दुरुस्त किया जाए। इसमें दो राय नहीं कि कुदरत के रंग तो यूं ही दिखाई देते रहेंगे, लेकिन उत्तराखंड के लिए ये रंग नए भी नहीं हैं। सदियों से प्रकृति का रवैया हम देखते आए हैं। आवश्यकता है तो प्रकृति को समझ व्यवस्थाओं को सुदृढ़ करने की। ताकि जब कुदरत कुपित हो तो नुकसान को कम किया जाए और जब बहार हो तो उसका भी लाभ मिल सके।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]