(लेखक सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हैं)
सैयद अता हसनैन

फ्रांस के चुनाव को समझना आसान नहीं है, विशेषकर उन लोगों के लिए तो बिल्कुल भी नहीं जो नित नई करवट लेती वैश्विक राजनीति और सामरिक मसलों के गुणाभाग से दूर रहते हैं। सबसे पहले फ्रांसीसी समाज के तानेबाने को समझना जरूरी होगा। कुछ साल पहले फ्रांस दौरे पर राजधानी पेरिस में मुङो नस्लीय मिश्रण का अनूठा संगम देखने को मिला था। उनमें से अधिकांश उत्तरी अफ्रीका के फ्रांसीसी प्रभाव वाले देशों से थे, लेकिन उनकी विविधता हैरान करने वाली थी। इस मिश्रण की जड़ें भी दूसरे विश्व युद्ध के बाद तब से जुड़ी हैं, जब फ्रांस और अन्य यूरोपीय देश पुनर्निर्माण की प्रक्रिया शुरू करने जा रहे थे।

लिहाजा उन्होंने प्रवासियों के लिए दरवाजे खोल दिए। इसमें भाषा के साथ-साथ औपनिवेशिक संबंधों की भी अहम भूमिका रही। अपने देश की तुलना में बेहतर जीवन की आस में मजदूरी जैसे काम प्रवासियों ने ले लिए और उनके बाद की पीढ़ियां पैदाइशी फ्रांसीसी नागरिक बन गईं और कुछ अपवादों को छोड़कर उन्हें मूल फ्रांसीसी नागरिकों सरीखे ही अधिकार और अवसर मिले।

फ्रांस की फुटबॉल टीम में मुस्लिम तबके के खिलाड़ी जितनी आसानी से मिल जाएंगे, आइएस के लिए भी उनकी उतनी ही सहज उपलब्धता है। यह मूल फ्रांसीसियों की प्रवासियों से घृणा भाव को दर्शाता है, जबकि उनमें से अधिकांश अब तटस्थ नागरिक बन चुके हैं। फ्रांस में तमाम आतंकी हमले हुए हैं जिसके चलते यूरोप में असहिष्णुता का भाव बढ़ा है जो काफी हद तक समझ में आता है। दुनियाभर में शायद इस्लामोफोबिया का डर हावी है, लेकिन यूरोप में यह कुछ ज्यादा है। इसकी वजह पहले अलकायदा और बाद में आइएस द्वारा किए गए हमले हैं। इनमें प्रवासी भी अहम किरदार रहे। यही वजह है कि प्रवासियों से जुड़ा मुद्दा फ्रांस चुनाव में सबसे अहम बन गया है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया को ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ जैसे मूल्य फ्रांस की ही देन हैं। 18वीं सदी के अंत से 21वीं सदी की शुरुआत तक दुनिया का सामना कई तरह की राजनीतिक और वैचारिक धाराओं से हुआ, मगर एक बार फिर धर्म अचानक से केंद्र में आ गया। इसके मूल में भी इस्लाम है। आतंकी हमलों की शक्ल में भी इस्लामवाद सामाजिक तनाव और हिंसा का माध्यम बना है। दुनियाभर में सरकारें इस चुनौती का सामना कर रही हैं जिससे उपराष्ट्रीय संघर्ष और आबादी का पलायन बढ़ा है। इससे प्रवासियों को निशाने पर लेने और राष्ट्रवाद की भावनाएं भी बढ़ी हैं।

यूरोप के वैचारिक और राजनीतिक भविष्य की दिशा तय करने की कुंजी फ्रांस चुनाव में निहित है। फ्रांस की चुनौतियां भी किसी अन्य यूरोपीय देश जैसी ही हैं। मसलन अनिश्चित आर्थिक भविष्य, आतंकी हमले और सीरिया और इराक में खराब हुए हालात से यूरोप में दस्तक देते शरणार्थियों की समस्या। माना जा रहा है कि रूस की मंशा ऐसे नतीजों की है जिसमें यूरोपीय संघ और नाटो कमजोर नजर आएं। फ्रांस के नतीजों की छाप जर्मनी के चुनाव पर भी पड़ना स्वाभाविक है जहां इसी साल सितंबर में चुनाव होने हैं।

फ्रांस में राष्ट्रपति के चुनाव मुख्यधारा के राजनीतिक दलों की लोकप्रियता, प्रभाव और शक्ति में आ रही कमी को दर्शाते हैं। मौजूदा राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने पहले ही एलान कर दिया था कि वह अगली बार राष्ट्रपति बनने की होड़ में शामिल नहीं हैं। रिपब्लिकन पार्टी के फ्रंकोइस फिलॉन, वामपंथी ज्यां लुक मैलेंशन और सोशलिस्ट पार्टी के बेनॉइट हैमोन 23 अप्रैल को हुए पहले दौर के चुनाव में ही छंट गए। अब चुनावी अखाड़े में केवल 39 साल के इमैनुअल मैक्रोन और 48 वर्षीय मरीन ली पेन ही बचे हैं।

मैक्रोन को वहां फ्रेंच ओबामा भी कहा जा रहा है जो बुनियादी रूप से मध्यमार्गी हैं। उनकी प्रगतिशील युवा शहरियों में अच्छी पकड़ है। वह यूरोपीय संघ से जुड़े रहने के पक्ष में हैं। प्रवासियों के मसले पर वह जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल के रुख को साझा यूरोपीय मूल्यों का प्रतिबिंब बताते हैं। राजनीतिक इस्लाम को लेकर उनकी अलग राय भी धर्मनिरपेक्षतावादियों को रास आ रही है। उन्हें वित्तीय जगत के उम्मीदवार के तौर पर भी देखा जा रहा है। मरीन ली पेन उनके एकदम उलट हैं।

उन्हें फ्रेंच ट्रंप कहा जा रहा है। वह नेशनल फ्रंट पार्टी की संस्थापक ज्यां मैरी ली पेन की बेटी हैं। उनका अभियान राष्ट्रवाद से ओतप्रोत है। वह यूरोपीय संघ से बाहर निकलने की हिमायती हैं और एकल मुद्रा यूरो भी उन्हें नहीं जंचती। प्रवासियों की विरोधी होने के साथ ही वह सीमाओं पर पुरानी स्थिति बहाल करना चाहती हैं। उम्मीद लगाई जा रही है कि फ्रांस धर्मनिरपेक्षता की लोकप्रिय धारा को ही चुनेगा। मैक्रोन का पलड़ा भारी भी लग रहा है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिकी चुनाव में आखिरी वक्त कैसे बाजी पलट गई थी। देखना है कि फ्रांस की जनता सात मई को किसे देश की कमान सौंपती है।