कुछ बातें बदलती नहीं लेकिन उनका दोहराया जाना जरूरी होता है। शिमला में हिमनदों पर संगोष्ठी के सार पहले की तरह कुछ डराने वाले और कुछ हौसला देने वाले भी हैं। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि लगातार पिघलते हिमालय के हिमनद झीलों और अंतत: नदी नालों के रूप में कभी भी कहर बरपा सकते हैं। कुछ का कहना है कि आने वाले बीस वर्ष तक हिमनद खत्म नहीं हो सकते। कुछ भी हो, सच यह है कि जिन कई कारणों से मौसम चक्र प्रभावित हो रहा है। मौसम एक दूसरे का अतिक्रमण कर रहे हैं, उनमें एक बड़ा कारण अवांछित मानवीय गतिविधि भी है।

स्वच्छता का संदेश और संकेत पूरे देश में दिया गया। दुखद यह है कि इस संदेश को अपनी सुविधा और अपने-अपने चश्मे के साथ पढ़ा गया। किसी को यह ध्यान बंटाने की कसरत लगी तो कुछ के लिए यह बहुत अच्छी शुरुआत है। निष्पक्ष होकर सोचें तो यह संदेश सीधे पर्यावरण संरक्षण के साथ जुड़ते हैं। समाज की सबसे छोटी इकाई यानी मनुष्य को जिस दिन स्वच्छता के संदर्भ समझ में आ गए, उस दिन पर्यावरण संरक्षण के प्रति पहला ठोस कदम उठेगा।

धरती के सीने पर जो कुछ हो रहा है, उसे देखने, परखने और उस पर पुनर्विचार की जरूरत है। हरित पट्टी का क्या हुआ, हरित पट्टी में क्या वही पेड़ पनपाए जा रहे हैं जो पर्यावरणमित्र हैं अथवा पेड़ लगाने के नाम पर कुछ भी रोपा जाएगा? जिस स्वच्छता की बात की जा रही है, उसका अर्थ केवल इतना न लिया जाए कचरा अपने घर से उठा कर कहीं और या किसी नाले या नदी के सुपुर्द किया जाए। इस स्वच्छता नहीं गंदगी या कचरे का स्थानांतरण ही कहा जाएगा। इसके लिए सरकारों के स्तर पर, गैर सरकारी संस्थाओं के स्तर पर कूड़ेदान रखने से लेकर कचरा प्रबंधन संयंत्र बनाए जाने चाहिए।

पुनर्चक्रण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। ऐसा करने से पर्यावरण बचेगा। वाहनों में प्रयोग होने वाले ईंधन पर भी विचार करने की जरूरत है। इसके विकल्प खोजे जाने चाहिएं। दिल्ली में जिस पर वाहनों से होने वाला प्रदूषण कम किया गया है, वही व्यवस्था पूरे देश में लागू क्यों नहीं हो सकती। पहाड़ों को बचाने की जरूरत सर्वाधिक है। हिमाचल प्रदेश में किसी समय पंखे एक विलासिता का प्रतीक होते थे लेकिन अब वातानुकूलन यंत्र भी प्रयोग हो रहे हैं। वास्तव में जल, जंगल और जमीन बचेंगे तो पर्यावरण बचेगा।

(स्थानीय संपादकीयः हिमाचल प्रदेश)