प्रदेश में किसे टिकट दें और किसे नहीं दें, इसे लेकर राष्ट्रीय दलों की मुश्किल तो बढ़ी हुई है ही, दलीय अनुशासन भी तार-तार हो रहा है। तकरीबन सभी प्रमुख दल इस समस्या से जूझ रहे हैं। प्रदेश की सत्ता के प्रबल दावेदार रहे राष्ट्रीय दलों भाजपा और कांग्रेस में ये समस्या ज्यादा गंभीर नजर आती है। जो दल अपने प्रत्याशी घोषित कर चुके हैं, उन्हें असंतोष से जूझना पड़ रहा है। लोकतंत्र के महापर्व चुनाव में इस बार राज्य में दलीय निष्ठा और मुद्दों की सियासत दांव पर लगी है। हावी है तो सिर्फ जीतने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर की जाने वाली उठापटक। इस वजह से दलों के भीतर अनुशासन भी दरक रहा है। आरोप-प्रत्यारोपों में लांछन लगाने का प्रचलन पहले ही सियासत में उथलेपन को बढ़ाता जा रहा है, ऐसे में दलों के भीतर अनुशासन को कायम करना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। चुनाव के मौके पर अनुशासनहीनता अपने चरम पर पहुंचने की परिपाटी तेजी से बढ़ रही है। तमाम राजनीतिक दल पार्टी टिकट देने के लिए ठोस पैमाना होने का दावा भले ही करें, लेकिन हकीकत में इस होड़ में पार्टी का अंतिम पैमाना टिकट के दावेदार की जीतने की क्षमता ही बनती जा रही है। ऐसे में पार्टी के प्रति समर्पण, लगन और आस्था के साथ काम करने के साथ ही पार्टी के सिद्धांतों पर डटकर खड़े रहने के आधार पर ही टिकट की दावेदारी को मजबूत नहीं माना जा रहा है। इससे दलों के भीतर टकराव को बढ़ावा मिल रहा है। साथ ही नए तरह की समस्या भी दलों का सिरदर्द बढ़ाती दिख रही है। निष्ठावान कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों पर ऐसे लोगों को तरजीह मिल रही है जिनका पार्टी के सिद्धांतों से दूर-दूर तक वास्ता नहीं रहता। सिद्धांतों और व्यावहारिकता के पैमाने पर दल व्यावहारिक धरातल पर ही आगे बढऩे पर अधिक यकीन कर रहे हैं। ये अनुचित न भी हो, तो भी दल और सिद्धांतों के प्रति समर्पण की कमी राजनीति में आयाराम-गयाराम की संस्कृति का पोषण करती दिख रही है। इसका शिकार हर वह दल हो रहा है जो पहले इन तथ्यों की अपने स्तर पर अनदेखी करता रहा है या उसके नेता अपने सियासी हितों और सत्ता पर पकड़ बनाए रखने की हनक में अनुशासनहीनता को बढ़ावा देने से गुरेज नहीं करते। बाद में सियासी उलटफेर का दांव उल्टा पडऩे की स्थिति में सिद्धांतों का रोना पीटा जाता है। राजनीति में शुचिता को बनाए रखने के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों के अवमूल्यन की इस प्रवृत्ति पर रोक लगना बेहद जरूरी है। लेकिन, इसके लिए पहले दलों को ही लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्थावान होना पड़ेगा। 'हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और' के अवसरवादी रवैये से तो ये प्रवृत्ति और बढ़ेगी।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]