राज्य गठन के 16 साल बाद भी उत्तराखंड के आधे गांव पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। ऐसे में जरूरत है पारंपरिक तौर-तरीकों से वर्षा जल के संग्रहण और संरक्षण की।
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गंगा-यमुना मायके उत्तराखंड के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि 39 हजार गांव-मजरों में से 17 हजार को पीने के लिए पर्याप्त पानी तक नहीं मिल पा रहा है। राज्य बनने के 16 साल बाद भी ऐसे हालात चिंता करने वाले तो हैं ही, चिंतन को भी मजबूर कर रहे हैं। सिर्फ पहाड़ ही नहीं, मैदानी इलाकों में भी पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची है। गर्मियों के सीजन में शायद ही कोई दिन जाता हो, जब प्यासे लोग सड़कों पर उतर धरने-प्रदर्शन और घेराव न करते हों। राजधानी देहरादून को ही लें तो जल संस्थान के मुताबिक पानी की कमी नहीं है, फिर शहर के तमाम हिस्सों में आपूर्ति नियमित नहीं है। लोग टैंकरों से पानी की खरीद को मजबूर हो रहे हैं। आखिर वितरण व्यवस्था में कहीं तो खामी है। अंग्रेजों के जमाने से बिछी पाइप लाइनें अब ज्यादा बोझ संभालने में सक्षम नहीं है। आपूर्ति का एक बड़ा हिस्सा लीकेज की भेंट चढ़ रहा है। पहाड़ों की स्थिति और भी विकट है। गांवों के लिए बनी पेयजल योजनाओं की स्थिति दयनीय है। योजनाओं की मरम्मत को लेकर विभागों का उदासीन रवैया जख्मों पर मरहम छिड़कने जैसा है। उत्तरकाशी जिले के राला गांव से हालात की गंभीरता का अहसास किया जा सकता है। आठ साल से क्षतिग्रस्त योजना की मरम्मत के लिए ग्रामीण एडिय़ां घिस रहे हैं। गांव की एक युवती ने आरटीआइ लगाई तो पता चला की योजना की मरम्मत तो पिछले साल हो चुकी है। डीएम से शिकायत के बाद जांच में साफ हो गया कि मरम्मत के नाम पर विभाग ने भले ही साढ़े छह लाख रुपये खर्च कर दिए, लेकिन धरातल पर काम हुआ ही नहीं। इसके बाद भी जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई नहीं की गई। पेयजल निगम के अनुसार 17 हजार गांवों में पानी की किल्लत दूर करने के लिए साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये की दरकार है। यानी न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। सवाल यह है कि समस्या से निपटने के लिए गंभीर प्रयास की जरूरत है। इसके लिए आवश्यकता है वर्षा जल संरक्षण की। पारंपरिक तौर तरीकों से पानी की कमी को दूर किया जा सकता है। पहाड़ों में चाल-खाल और सूखते प्राकृतिक स्रोतों को पुनर्जीवन देने से समस्या का समाधान हो सकता है। इस दिशा में सरकारी स्तर पर योजनाएं तो बनती हैं, लेकिन कागजी कसरत कभी धरातल पर नहीं उतर पा रही। दरअसल, स्वस्थ उत्तराखंड के लिए सबसे ज्यादा जरूरत है शुद्ध पेयजल की, मगर यहां तो पेयजल के लिए ही पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। ऐसे में शुद्धता की कौन कहे?

 [ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]