प्रदेश में पेयजल समस्या बढऩे के बाद अब विभाग को इसके समाधान की याद आई है। विभाग यदि समय रहते इस दिशा में कदम उठाए तो इस समस्या पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।
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प्रदेश में चढ़ते पारे के साथ पेयजल की लगातार बढ़ती किल्लत चिंता का विषय है। जिस प्रकार से गर्मी बढ़ रही है, उससे पेयजल संकट गहराने के भी आसार बन रहे हैं। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में यह स्थिति विकट रूप लेती जा रही है। आलम यह है कि बढ़ती गर्मी में नलकूपों का डिस्चार्ज घट रहा है, तो कई जलस्रोत सूखते जा रहे हैं। विभागीय आंकड़ों की ही बात करें तो प्रदेश में इस समय 1428 इलाके पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। इनमें 1006 ग्रामीण क्षेत्र और 422 शहरी क्षेत्र हैं। विभाग इससे निपटने के लिए पेयजल लाइनों की जांच कर दुरुस्त करने और फिलहाल 65 टैंकरों के बूते समस्या से निपटने के दावे कर रहा है। सवाल यह है क्या केवल इन पेयजल लाइनों को दुरुस्त करने भर से पेयजल किल्लत दूर हो जाएगी। पानी के टैंकरों की संख्या इतनी कम है कि इससे चुनिंदा क्षेत्रों को ही थोड़ी राहत दी जा सकती है। ऐसा नहीं है कि गर्मियों में यह पेयजल किल्लत पहली बार महसूस की जा रही है। हर साल गर्मियां शुरू होती ही पानी के लिए हाहाकार मचने लगता है। जब समस्या बढऩे लगती है तब कहीं जाकर विभाग इसका समाधान निकालने की प्रक्रिया शुरू करता है। देखा जाए तो इस समस्या के लिए विभाग ही नहीं, बल्कि प्रदेश में अभी तक आई तमाम सरकारें भी कम दोषी नहीं हैं। प्रदेश में लगातार बढ़ रहे पेयजल संकट से निपटने के लिए तमाम पेयजल योजनाओं को बनाने की बात चली। इनमें विश्व बैंक से लेकर केंद्र की सहायता से योजनाओं को बनाने की बात कही गई। बावजूद इसके इनमें से अधिकांश पेयजल योजनाएं पूरी नहीं हो पाई हैं। सरकारें इनमें हमेशा ही आर्थिक सहायता का रोना रोती रहती हैं मगर किसी भी सरकार ने अपने संसाधनों के बूते इन योजनाओं को पूरा करने में रुचि नहीं दिखाई। यहां तक कि प्रदेश में कई योजनाएं राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की भेंट भी चढ़ रही हैं। इसका खामियाजा सीधे ग्रामीणों को उठाना पड़ता है। विभागीय अधिकारियों की लचर कार्यशैली समस्या को और ज्यादा बढ़ाती है। अब प्रदेश में पेयजल संकट गहराने लगा है तो इसके समाधान की बात कही जा रही है। सच्चाई यह है कि विभाग समय रहते इसकी कार्ययोजना बनाने में दिलचस्पी नहीं दिखाते। पेयजल किल्लत को दूर करने के लिए यदि गर्मियों से पहले ही काम शुरू हो जाए तो काफी हद तक इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]