प्रदेश के कई भाजपा नेता अफसरशाही से काफी नाराज हैं और कुछ तो खुलकर अपनी नाराजगी व्यक्त भी कर रहे हैं। प्रदेश में सरकार गठन के बाद से रह-रहकर सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं और अफसरों से विवाद उभरकर आए। कुछ मंत्रियों व विधायकों की अफसरों से खींचतान तो कई बार सार्वजनिक भी हो गई। अब नाराजगी इस कदर बढ़ चुकी है कि कुछ विधायक अपनी ही सरकार से कुपित हैं और हाईकमान तक मोर्चा खोले हुए हैं। विधायक व संगठन के नेता ही नहीं सरकार के मंत्री भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि सब कुछ ठीक नहीं है। क्या अफसरशाही पर नियंत्रण के लिए सरकार के पास स्पष्ट रणनीति नहीं है? ऐसा प्रथमदृष्टया दिखता नहीं, चूंकि सरकार हर कार्य में पारदर्शिता लाने के लिए नियमित प्रयास करती दिख रही है। फिर ऐसा क्या है कि विवाद लगातार उलझता जा रहा है। संभव है कि यह पादरर्शिता कुछ लोगों को रास न आ रही हो।
कार्यपालिका व विधायिका में खींचतान पहली बार नहीं है। अब ऐसा लगता है कि अविश्वास की सी स्थिति बन गई है। गुरुग्र्राम का ग्वाल पहाड़ी विवाद हो या फिर मेट्रो का रूट बदलने का, भाजपा विधायक खुलेआम अफसरशाही व अपनी सरकार को कठघरे में खड़ा करते दिखे। इन तमाम घटनाक्रम से एक बात साफ है कि कुछ कदम तुरंत उठाए जाने की आवश्यकता है। शासन व प्रशासन के बीच एक स्पष्ट सीमा-रेखा होनी चाहिए। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान कुछ असंतुष्ट नेता अधिक मुखर थे, लेकिन चुनाव परिणाम ने उनके हौसले कम किए हैं। हालांकि उनका विरोध बरकरार है। सरकार को चाहिए कि असंतुष्टों की बात सुने और उनकी जायज मांगों को पूरा करे, क्योंकि सरकार चलाने के लिए सबका साथ आवश्यक है। अगर कुछ बातें स्वीकार्य नहीं हैं तो उनके बारे में स्पष्ट संदेश सभी पक्षों को दे दिया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति नहीं आनी चाहिए कि कुछ लोगों को बेवजह सवाल उठाने का मौका मिल जाए। उम्मीद करें कि आमजन से जुड़े मसलों पर सभी मिलकर आगे कदम बढ़ाएंगे।

[ स्थानीय संपादकीय : हरियाणा ]