यह जानकारी हर संवेदनशील व्यक्ति के लिए पीड़ादायी है कि राजधानी पटना सहित उन सभी स्थानों पर डा.राजेंद्र प्रसाद के स्मृतिचिन्हों की अनदेखी की जा रही है जहां उन्होंने अपने जीवन का समय गुजारा। वोटबैंक राजनीति के इस दौर में जातिवादी पार्टियां ऐसे नेताओं के संग्रहालय, स्मारक और मंदिर बनवाने के लिए संघर्ष करती हैं जिनका राष्ट्र और समाज के लिए योगदान सर्वमान्य नहीं होता, जबकि डा.राजेंद्र प्रसाद और उसी कोटि के अन्य महापुरुषों के असाधारण योगदान की अनदेखी की जाती है। बेशक बिहार में तमाम गर्व-प्रतीक मौजूद हैं, इसके बावजूद यदि कोई एक प्रतीक चुनना हो तो डा.राजेंद्र प्रसाद के नाम से अधिक मूल्यवान एवं गौरवशाली क्या हो सकता है? वह देश के प्रथम राष्ट्रपति थे, संत चरित्र के स्वतंत्रता सेनानी थे, उनकी सादगी अतुलनीय थी, ये सब बातें अपनी जगह हैं। इससे हटकर उनके व्यक्तित्व की सर्वाधिक असाधारण बात थी, उनकी अविश्वसनीय मेधा। वह एक ऐसे छात्र एवं परीक्षार्थी थे जिनकी उत्तर पुस्तिकाएं जांचने में परीक्षक खुद को असमर्थ पाते थे। यह बिहार का सौभाग्य एवं गर्व है कि डा.राजेंद्र प्रसाद जैसे मनीषी का अवतरण इस धरती पर हुआ। बिहार को इस संयोग पर इतराना चाहिए लेकिन इसके बजाय हम उनकी स्मृति को भुलाने में लगे हैं। यह 'आत्मघात'जैसा आचरण है। डा.राजेंद्र प्रसाद ऐसे महामना थे जिन्हें राज्य की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। फिर भी उनकी जन्मस्थली होने के नाते बिहार का धर्म है कि उनके जन्म, नाम, जीवन और उपलब्धि से संबंधित हर प्रतीक को सहेजकर रखा जाए। यह भी अफसोस की बात है कि डा.राजेंद्र प्रसाद के स्मृति-आयोजनों में उनकी जन्म-जाति के बंधु ही सक्रिय दिखते हैं। महापुरुषों का स्मरण हर सामाजिक वर्ग को करना चाहिए।
देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए महापुरुषों की एक पूरी पीढ़ी इस देश में अवतरित हुई थी जिन्होंने अपने त्याग और बलिदान से देश को आजादी दिलाई। राजेंद्र बाबू उस पीढ़ी के अहम झंडाबरदार थे। इस कड़ी में ऐसे तमाम अन्य क्रांतिवीर देशभक्तों के नाम शामिल हैं लेकिन अफसोस की बात है कि ऐसे नगीनों की स्मृतियां तिरस्कृत हो रही हैं। राज्य सरकार को एक सुस्पष्ट नीति बनानी चाहिए कि सामाजिक व राजनीतिक क्रांतियों में असाधारण योगदान देने वाले महापुरुषों की स्मृतियों को किस तरह सहेजा जाएगा। न सिर्फ इनकी जन्म एवं कर्म स्थलियों को संरक्षित किया जाना चाहिए बल्कि शैक्षिक पाठ्यक्रम में उनकी जीवनगाथा शामिल की जानी चाहिए ताकि भावी पीढिय़ां उनके बारे में जान सकें। इतना ही नहीं, विश्वविद्यालयों में उनके नाम की शोध पीठ स्थापित की जानी चाहिए ताकि शोधार्थी उनके कृतित्व-व्यक्तित्व के अदृश्य पहलुओं पर भी रोशनी डाल सकें। मान्यता है कि जो सभ्यताएं अपने अतीत का गौरव भूल जाती हैं उनके संस्कारों पर गर्दिश पड़ जाती है। हर पीढ़ी की जिम्मेदारी होती है कि वह अपने इतिहास के गर्व अगली पीढ़ी के हवाले करे। क्या डा.राजेंद्र प्रसाद के मामले में मौजूदा पीढ़ी यह धर्म निभा रही है? यह ठीक है कि डा.राजेंद्र प्रसाद के नाम पर कोई वोटबैंक नहीं उमड़ता लेकिन सिर्फ इस वजह से महापुरुषों का तिरस्कार नहीं किया जाना चाहिए। शासन-प्रशासन को अविलंब राजेंद्र बाबू की स्मृतियों की खोज-खबर लेनी चाहिए तथा इनके सम्मानजनक संरक्षण के लिए जो भी आवश्यक हो, किया जाना चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय : बिहार ]