हिमालयी राज्य उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं का यूं तो लंबा इतिहास रहा है, मगर जून 2013 में हुई जलप्रलय ने जिस तरह समूची केदार घाटी में तबाही मचाई, उसके सदमे से पूरी तरह उबरने में निश्चित तौर पर लंबा वक्त लगेगा। केदारनाथ की यह भीषण त्रासदी उत्तराखंड के साथ ही अन्य हिमालयी राज्यों के लिए भी बड़ा सबक है। विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति से खिलवाड़ मानव का शगल सा बनता जा रहा है। सुनियोजित व नियंत्रित विकास के नियम-कायदों की जिस तरह निरंतर अनदेखी की जा रही है, वह खुद मानव जीवन के लिए खतरों की एक नई फेहरिस्त भी तैयार कर रहा है। जाहिर है ऐसे में जून 2013 की केदारनाथ आपदा से सबक लिया ही जाना चाहिए। प्रदेश सरकार ने इस दिशा में 16 जून को आपदा न्यूनीकरण एवं आपदा जागरूकता दिवस के रूप में मनाने का जो फैसला लिया है, वह कुछ देर से ही सही मगर स्वागतयोग्य कदम है। इसमें दो राय नहीं कि प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का वश नहीं है। कोई भी ऐसा तंत्र अब तक विकसित नहीं हुआ है, जो दैवीय आपदा की घटनाओं को रोक सके। अलबत्ता, आपदा प्रबंधन की कारगर रणनीति के जरिए उसके नुकसान को काफी हद तक कम जरूर किया जा सकता है। ऐसे में 16 जून की हर बरसी पर आमजन को आपदा के खतरों और उसके बचाव के तरीकों के प्रति जागरूक बनाने की मुहिम कई मायनों में लाभप्रद साबित हो सकती है। नदियों में अतिक्रमण कर हो रही नई बसावटों का मसला हो या फिर भवनों के निर्माण में सुरक्षा मानकों की अनदेखी का मामला, भूकंपीय जोन-चार व पांच में शामिल पहाड़ी राज्य में इस प्रवृति पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने की जरूरत है। इसमें सख्त नियंत्रण के साथ ही जन जागरूकता की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। उत्तराखंड, कदाचित देश का पहला राज्य है, जहां अलग से आपदा प्रबंधन मंत्रालय का गठन किया गया। यह दीगर बात है कि आपदा न्यूनीकरण व प्रबंधन का प्रभावी तंत्र यहां भी विकसित किया जाना अभी बाकी है। राज्य सरकार ने राज्य आपदा प्रतिपादन बल के गठन जैसे कई अहम कदम जरूर उठाए हैं, मगर सरकारी तंत्र को भी आपदा के खतरों के प्रति और अधिक संवेदनशील बनाने की जरूरत है। राज्य के जो 346 गांव आपदा के मुहाने पर खड़े हैं, उनके सुरक्षित विस्थापन की दिशा में भी ठोस कदम उठाने की जरूरत है। पिछले कुछ वर्षों में प्रदेश के पर्वतीय इलाकों से जिस तरह पलायन की रफ्तार बढ़ी है, वो खुद एक बेहद ही चिंताजनक पहलू है। जनजागरूकता के साथ ही ऐसे अन्य ठोस उपायों को भी धरातल पर आकार देना होगा, जिससे पहाड़ के आम जनमानस में फिर से सुरक्षा का भाव जग सके।

[स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड]