जद-यू छोड़कर अपनी अलग राह पकड़ने को तैयार शरद यादव ने अपनी ताकत दिखाने के नाम पर विपक्षी दलों के चुनिंदा नेताओं को एक मंच पर एकत्रित करने में भले ही सफलता पाई हो, लेकिन इसमें संदेह है कि वह आम जनता के बीच कोई उम्मीद जगाने में भी सफल रहे। शरद यादव के सम्मेलन में विपक्षी नेताओं ने हमेशा की तरह मोदी सरकार को कोसा और यह कहने की कोशिश की कि देश मुश्किल में है। विपक्षी नेताओं ने जनता से एकजुट होने को तो कहा, लेकिन वे यह स्पष्ट नहीं कर सके कि आखिर आम जनता को उनका साथ देने से क्या मिलने जा रहा है? यदि विपक्षी दलों के नेता यह सोच रहे हैं कि देश के रसातल में जाने का शोर मचाने मात्र से जनता उनके साथ खड़ी हो जाएगी तो यह दिवास्वप्न के अलावा और कुछ नहीं। नि:संदेह सरकार की आलोचना करना और उसकी नीतियों में खामी खोजना विपक्ष का दायित्व है, लेकिन इसके साथ ही उसकी यह भी जिम्मेदारी बनती है कि वह कोई वैकल्पिक विचार अथवा एजेंडा भी सामने रखे। विपक्षी नेता इस मामले में किस तरह नाकाम हैं, यह इससे समझा जा सकता है कि वे यह नहीं बताते कि मोदी सरकार अपनी कथित गलत नीतियों को सही कैसे कर सकती है? जिन किसानों और नौजवानों की चिंता में वे दुबले हुए जा रहे हैं उनके भविष्य को बेहतर बनाने के लिए उनकी ओर से एक भी ऐसा विचार सामने नहीं लाया जा सका है जो जनता का ध्यान खींच सके। शरद यादव की ओर से विपक्षी एकता का प्रदर्शन करने के चंद दिनों पहले सोनिया गांधी ने भी ऐसा ही किया था। उस दौरान भी विपक्षी नेताओं की ओर से करीब-करीब वैसी ही बातें की गई थीं जैसी बीते दिनों साझी विरासत बचाने को लेकर की गईं। अच्छा होता कि विपक्ष की ओर से कोई यह समझाने की कोशिश करता कि साझी विरासत खतरे में क्यों है और उसे खतरा किससे है? 1यदि मोदी सरकार को साझी विरासत के लिए खतरा बताए जाने में कुछ भी दम होता तो आखिर एक के बाद एक राज्यों में भाजपा को राजनीतिक सफलता क्यों मिल रही होती? इसी तरह किस्म-किस्म के सर्वेक्षण यह क्यों कहते कि मोदी सबसे लोकप्रिय नेता हैं? विपक्षी नेता जनता के हित की बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं, लेकिन यह समझने से इन्कार करते हैं कि आज के समाज की अपेक्षाएं और आकांक्षाएं क्या हैं? पता नहीं क्यों वे यह देखने के लिए तैयार नहीं कि जनता उनकी ओर आकर्षित नहीं हो रही है तो इसका मूल कारण उनकी घिसी-पिटी बातें हैं? कांग्रेस भले ही विपक्षी दलों की अगुआ बनने को बेकरार हो, लेकिन इन दिनों उसे दिशा देने का काम कर रहे राहुल गांधी खुद ही दिशाहीन दिख रहे हैं। ऐसा लगता है कि उनके लिए राजनीति का मतलब केवल सरकार को कोसना और उसके खिलाफ नित-नए जुमले गढ़ना भर है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस जिस तरह वामदलों की प्रतिकृति बनती जा रही है उससे इसलिए बात बनने वाली नहीं, क्योंकि आज वामपंथ की राजनीति ही अप्रासंगिक हो चुकी है। यह अजीब है कि कांग्रेस उन वामदलों का अनुसरण करती दिख रही है जिनकी राजनीतिक जमीन करीब-करीब खिसक चुकी है।

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