विश्व में बढ़ती आर्थिक असमानता के कारण कई प्रकार की सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियां उत्पन्न हो रही हैं। अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई आज एक वैश्विक सत्य है। ब्रिटिश संस्था ‘आॅक्सफेम’ की एक रिपोर्ट में हाल ही में कहा गया है कि 2015 के अंत तक विश्व की मात्र एक प्रतिशत समृद्ध जनसंख्या की संपत्ति विश्व के शेष 99 प्रतिशत लोगों की संपत्ति से अधिक हो जाएगी। यानी संपूर्ण पृथ्वी के संसाधनों के आधे से अधिक हिस्से पर मात्र एक प्रतिशत समृद्ध वर्ग कब्जा जमाकर बैठा हुआ है। स्पष्ट है कि संपूर्ण विश्व में आर्थिक विषमताएं लगातार बढ़ती ही जा रही हैं।

विश्व के लगभग 80 प्रतिशत लोगों की कुल संपत्ति मिलाकर वैश्विक संपदा की मात्र पांच प्रतिशत ही होती है। यद्यपि विश्व के अधिकांश देशों की सरकारें और ‘संयुक्त राष्ट्र’ जैसी अनेक वैश्विक संस्थाएं निर्धनता उन्मूलन,बेरोजगारी और आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं, तथापि इसके बेहतर परिणाम सामने आते नहीं दिख रहे हैं। यह आवश्यक है कि संपूर्ण विश्व में आर्थिक विकास प्रक्रिया को अपने कब्जे में बनाए रखने वाले समृद्ध वर्ग पर अंकुश लगाया जाए। आर्थिक संपत्तियों और प्राकृतिक संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण ही एक शांतिपूर्ण विश्व की स्थापना कर सकता है। आज विश्व में मात्र 80 धनाढ्यों के पास उतनी संपत्ति है, जितनी संपत्ति विश्व की शेष साढ़े तीन अरब जनसंख्या के पास भी नहीं है।

पांच-छह साल पहले आई मंदी से लेकर अब तक विश्व में अरबपतियों की संख्या दोगुनी से भी ज्यादा हो चुकी है। मार्च 2009 में विश्व में 793 अरबपति थे, जबकि मार्च 2014 में इनकी संख्या बढ़कर 1645 हो गई। यह वह दौर था, जब कई देशों में भुखमरी और बेरोजगारी चरम पर थी। यही नहीं, अमीरों की सम्पत्ति में हर मिनट पांच लाख डालर की वृद्धि हो रही है। संसार की आधी गरीब जनसंख्या के पास कुल मिलाकर जितनी दौलत है, उतनी तो आज गिनती के सिर्फ 85 लोगों के पास है। अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई ने अपना भयावह असर दिखाना शुरू कर दिया है।

साधारण जनता में भारी आक्रोश है। इसकी अभिव्यक्ति अपराध और हिंसक प्रदर्शनों में हो रही है। हाल तक असमानता और धनी-गरीब के बीच की खाई के बारे में बात करना पिछड़ेपन का पर्याय समझा जाता था। इसे हाशिए पर जा चुके मार्क्सवादियों की सनक के रूप में देखा जाता था, लेकिन अभी पूंजीवाद के पैरोकारों की भाषा भी बदल चुकी है। दरअसल इस मंदी ने पूंजीवाद के मौजूदा विकास मॉडल की पोल खोलकर रख दी है। जो लोग कल तक बाजार अर्थव्यवस्था को हर समस्या के लिए रामबाण बनाते थे, वही अब असमानता का रोना रो रहे हैं। ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ का हवाला देते हुए वे कहते थे कि ऊपर की समृद्धि रिस-रिस कर समाज के निचले वर्ग में भी खुशहाली लाएगी, पर यह बातें हवा-हवाई ही साबित हुई हैं। विकास के इस ढांचे ने अमीरों को और अमीर बनाया है, जबकि गरीबों को जिंदा रहने लायक भी नहीं छोड़ा है। विकसित देशों में आई भारी बेरोजगारी से वहां के शासकों के माथे पर बल पड़े हुए हैं। कुछ समय पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने वहां के समाज में बढ़ती आर्थिक असमानता पर गहरी चिंता व्यक्त की थी।

ईसाई धर्मगुरु पोप फ्रांसिस तक पूंजीवाद पर हमला बोलते हुए कह चुके हैं कि अत्यधिक धन पिपासा समाज में एक नई प्रकार की निरंकुशता को जन्म देती है। बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा का भी ऐसा ही मत रहा है। स्पष्ट है कि आर्थिक असमानता की बढ़ती खाई को विश्व में सर्वत्र महसूस किया जा रहा है। यदि सरकारों में दृढ इच्छाशक्ति हो, तो वे असमानता घटा सकती हैं। इसके लिए बड़े कारोबारी घरानों पर टैक्स लगाकर सार्वजनिक सेवाओं के लिए आवश्यक संसाधन जुटाए जा सकते हैं। इस रिपोर्ट का कहना है कि 65 शीर्ष धनकुबेरों पर महज 1.5 प्रतिशत सम्पत्ति कर लगाकर नौ करोड़ लोगों की गरीबी दूर की जा सकती है, लेकिन यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि राजनीतिक फैसलों पर भी पैसे वालों का नियंत्रण है। बहरहाल, इससे पहले कि पानी सिर से गुजर जाए और अराजकता के हालात बन जाएं, सरकारों को आर्थिक विषमता के मुद्दे पर सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए अपना ध्यान केंद्रित करना होगा।

विश्व की कुल जनसंख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा आज गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने के लिए विवश है। वैश्विक, आर्थिक प्रगति का कोई लाभ उसके हिस्से में नहीं आ पा रहा है। किसी देश में एक उचित जीवनस्तर जीने के लिए जरूरी न्यूनतम आय को उस देश की ‘गरीबी रेखा’ कहा जाता है। गरीबी रेखा की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई वैधानिक सर्वमान्य परिभाषा नहीं है। सभी देशों में गरीबी रेखा का निर्धारण अलग-अलग मानकों के आधार पर होता है। जो व्यक्ति यूरोप या अमेरिकी परिभाषा के अनुसार निर्धन हों, वह आवश्यक नहीं है कि दक्षिण एशियाई देशों के मानकों पर भी उसी के अनुरूप हो। स्वाभाविक रूप से विकसित देशों की गरीबी रेखा अल्पविकसित एवं निर्धन राष्ट्रों की गरीबी रेखा से ऊपर है। वैश्विक स्तर पर प्रतिदिन एक डॉलर पर गुजारा करने वाले लोग गरीब घोषित किए गए हैं। 2008 में विश्व बैंक ने इस रेखा को संशोधित कर 1.25 डॉलर तय किया था। विश्व में इस समय 140 करोड़ व्यक्ति इस गरीबी रेखा के नीचे आते हैं। ‘विश्व बैंक’ के अनुसार दो डॉलर से कम प्रतिदिन पर गुजारा करने वाले व्यक्ति मध्यम स्तर की गरीबी के शिकार हैं।

वास्तव में विकल्पों और अवसरों का अभाव ही ‘गरीबी’ है। निरंतर बढ़ती असमानता और निर्धनता स्पष्ट रूप से मानव सम्मान और मानवीय गरिमा की भावना के विपरीत है। इससे यह सिद्ध होता है कि वैश्विक समाज एवं आधुनिक शासन तंत्र, विशाल मानव संसाधन का सही प्रयोग करने और उसे न्यायपूर्ण जीवन देने में सक्षम सिद्ध नहीं हुआ है। रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरतों के अभाव से विश्व की अधिकसंख्य जनता पीडि़त है। ‘विश्व बैंक’ के अनुसार किसी को उसके कल्याण से वंचित रखना भी गरीबी का ही एक रूप है। इसमें कम आय और आत्मसम्मान से जीने के लिए मूलभूत सेवाओं को ग्रहण करने की अक्षमता शामिल होती है। स्तरहीन शिक्षा और स्वास्थ्य, स्वच्छ जल और साफ-सफाई की अनुपलब्धता तथा अभिव्यक्ति का अभाव भी निर्धनता के स्पष्ट लक्षण होते हैं।

भारत की एक महत्वपूर्ण समस्या यह है कि देश में संसाधनों और संपत्ति का न्यायपूर्ण वितरण अभी तक सुनिश्चित नहीं किया जा सका है। इससे समाज में अन्याय की मात्रा बढ़ती है और नागरिकों में शासन के प्रति विश्वास एवं लगाव उत्पन्न नहीं हो पाता। अन्यायपूर्ण वितरण का दुष्परिणाम यह भी है कि समाज में असंतोष बढ़ जाता है और यह विभिन्न प्रकार की हिंसा और आंदोलनों की शक्ल में यह मुखर रूप से सामने आने लगता है। इससे व्यापक राष्ट्रीय संपत्ति और बेशकीमती मानव संसाधनों की भारी क्षति होती है। संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण से ही देश के विशाल मानव संसाधन को रचनात्मक ढंग से राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगाया जा सकता है।