इससे अधिक लज्जाजनक और शरारतपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता कि कश्मीर के पत्थरबाजों को चेताने पर कांग्रेस समेत कई अन्य दलों के नेताओं ने सेनाध्यक्ष के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। किंतु-परंतु का सहारा लेकर सेनाध्यक्ष के कथन का विरोध करने वाले न केवल घटिया एवं घातक राजनीति का परिचय दे रहे हैं, बल्कि कश्मीर के पत्थरबाजों और उन्हें सड़कों पर उतारने वाले पाकिस्तान परस्त तत्वों का दुस्साहस भी बढ़ा रहे हैं। अगर यही राजनीति है तो फिर उसके प्रति केवल जुगुप्सा ही पैदा हो सकती है।

इस पर गौर करें कि कश्मीर में पत्थरबाजी के अनवरत सिलसिले के खिलाफ मुंह खोलने में शर्माने वाले नेता सेनाध्यक्ष के इस सहज बयान पर किस तरह बिलबिला उठे कि मुठभेड़ के दौरान सुरक्षा बलों के काम में बाधा डालने वालों को आतंकियों का समर्थक मानकर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। आखिर इस बयान में क्या अनुचित या आपत्तिजनक है? क्या सेनाध्यक्ष के बयान का विरोध करने वाले नेता ऐसा कुछ चाह रहे हैं कि आतंकियों से मुठभेड़ के दौरान सुरक्षा बलों के खिलाफ नारेबाजी के साथ ही उन पर पथराव का सिलसिला भी जारी रहे? यदि नहीं तो फिर वे पत्थरबाजों के खिलाफ दो शब्द कहने की जरूरत क्यों नहीं समझ रहे हैं? ध्यान रहे कि इसके पहले भी इन नेताओं की आपत्ति पत्थरबाजी पर नहीं, बल्कि इस पर थी कि सुरक्षा बल उनके खिलाफ र्छे वाली बंदूकों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं?

इस सवाल के सहारे संसद तक में तमाशा खड़ा किया गया था। क्या दलगत राजनीति इस कदर अंधता से ग्रस्त हो चुकी है कि अब नेताओं को यह दिखना भी बंद हो गया है कि कश्मीर में हमारे जवानों की शहादत का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। आखिर सेनाध्यक्ष के बयान का विरोध करने वाले यह कैसे भूल सकते हैं कि कश्मीर में केवल इसी हफ्ते एक मेजर समेत छह जवान शहीद हो चुके हैं। शायद ही किसी नेता ने ऐसा कुछ कहा हो कि आठ आतंकियों को मार गिराने में छह सैनिकों की शहादत स्वीकार नहीं। सेनाध्यक्ष के खिलाफ तरह-तरह के कुतर्क पेश कर रहे नेताओं को यह पता होना चाहिए कि हंदवाड़ा में आतंकियों से मुठभेड़ के दौरान घायल मेजर यदि समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाए तो इस कारण भी कि उग्र भीड़ ने न केवल सेना की गाड़ियों का रास्ता रोका, बल्कि उन पर पथराव भी किया।

यह कितना शर्मनाक है कि जब ऐसी घटना के बाद पत्थरबाजों की एक स्वर में भर्त्सना होनी चाहिए तब उनका मनोबल बढ़ाने की कोशिश हो रही है? धिक्कार है ऐसे लोगों पर जो सैनिकों की शहादत पर तो मुंह सिले रहते हैं, लेकिन सेना और सुरक्षा बलों की नाक में दम करने वाले तत्वों को चेताए जाने के खिलाफ मुखर हो उठते हैं। आखिर सेनाध्यक्ष के बयान का विरोध करने वाले किस मुंह से यह कह सकते हैं कि उन्हें सैनिकों की परवाह है? इसका कोई औचित्य नहीं कि सेनाध्यक्ष उन नेताओं की रत्ती भर परवाह करें जिन्होंने उनके बयान का विरोध किया। उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनकी चेतावनी पर अमल हो। इसके लिए केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकार को भी जरूरी कदम उठाने चाहिए।

(राष्ट्रीय संपादकीय)