सीलमपुर इलाके में डीडीए के खाली प्लाट में बने 10 फीट के गड्ढे में गिरने से एक आठ साल के बच्चे की मौत की घटना यह साबित करती है कि पिछले हादसों से भी सिविक एजेंसियों ने सबक नहीं ली। किसी भी एजेंसी को इसकी फिक्र नहीं है कि उनकी लापरवाही की वजह से कई घरों के चिराग बुझ चुके हैैं। अब बड़ा सवाल यह है कि आखिर ये सरकारी गड्ढे कब तक मौत का सबब बनते रहेंगे और कब तक आम लोग इसका शिकार होते रहेंगे? जब यह स्थिति देश की राजधानी की है तो बाकी हिस्सों में क्या हाल होगा यह तो सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। इससे भी बड़ी बात है कि पिछले दिनों ही बुराड़ी, वजीरपुर में भी ऐसी घटनाएं हो चुकी हैैं। इसके बावजूद इन एजेंसियों की नींद नहीं खुली है। हर हादसे के बाद एजेंसियों के बीच सिर्फ और सिर्फ एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू होता है और फिर किसी एक के सिर पर जिम्मेदारी थोप कर कार्रवाई की इतिश्री कर दी जाती है। इन सबके बीच बड़ा सवाल यह है कि आखिर एजेंसियों की आपसी कलह का खामियाजा आम जनता क्यों भुगते। ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं होती कि ऐसे हादसों के बाद संबंधित एजेंसियों के अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो। सरकार को इस बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

दरअसल, हर घटना के बाद जांच कमेटी बिठाकर लोगों के गुस्से को शांत कर दिया जाता है। इसके बाद कमेटी की रिपोर्ट कब आई और क्या कार्रवाई हुई, इसकी जानकारी जनता को नहीं दी जाती। इस कारण अधिकारी भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैैं। बुराड़ी में हुए हादसे में तो पुलिस को गड्ढे की जिम्मेदारी तय करने में ही एक महीना से ज्यादा का वक्त लग गया। आखिर हाईटेक मानी जाने वाली दिल्ली पुलिस को इतना वक्त क्यों लगा? इससे साफ पता चलता है कि ऐसे मामलों की जांच लिए वह भी सरकारी महकमों के भरोसे ही बैठी रहती है। उसकी कार्यप्रणाली की भी समीक्षा होनी चाहिए। आला अधिकारियों को जांच पर नजर रखनी चाहिए और एक समयसीमा तय करनी चाहिए ताकि जांच अधिकारी अपने काम को सही वक्त पर अंजाम दे सके। पुलिस को चाहिए कि सीलमपुर हादसे में वह जल्द से जल्द अपनी जांच पूरी करके दोषियों को सलाखों के पीछे भेजे। यह सिर्फ एक बच्चे के गड्ढे में गिरने का मामला नहीं है, ये एक परिवार के उजडऩे की घटना है। सभी सिविक एजेंसियों को अपने-अपने कार्यक्षेत्र में आने वाले गड्ढों की पहचान कर जल्द से जल्द इसे भरना चाहिए ताकि किसी दूसरे परिवार को इस तरह के हादसे से नहीं गुजरना पड़े।

[ स्थानीय संपादकीय : दिल्ली ]