हाईकोर्ट का एक और आदेश। लखनऊ विकास प्राधिकरण के अफसरों को एक और फटकार। सरकारी कामकाज पर एक और गंभीर टिप्पणी और अफसरों की निरंकुशता को लगाम लगाने में एक और विफलता। पूर्व मंत्री गायत्री प्रजापति के अवैध निर्माण और सम्पत्तियां बहुत दिनों से सुर्खियों में हैं। विधानसभा चुनाव के पहले ही उनके खिलाफ अनेक शिकायतें अदालत और लोकायुक्त तक पहुंच गई थीं। गुरुवार को नाराज अदालत ने प्राधिकरण को न केवल चार दिनों में अवैध कब्जे गिराने का आदेश दिया बल्कि उसका ब्योरा भी तलब कर लिया। वैसे तो अफसरों के पास कोई चारा नहीं बचा है फिर भी यह देखने वाली बात होगी कि क्या अब भी वे कोई रास्ता निकालने की कोशिश करते हैं। जानकार याद करने बैठेंगे तो अवैध कब्जों के खिलाफ किसी भी प्राधिकरण की कोई बड़ी कार्रवाई जल्दी याद नहीं आएगी। सच तो यह है कि अवैध कब्जों का मामला हो या सरकारी बिलों की कम वसूली का, ऐसी हर समस्या के मूल में अफसर ही नजर आएंगे। फाइल उनकी इच्छा से चलती है और उन्हीं की इच्छा से दबा भी दी जाती है लेकिन, वे हर बार कार्रवाई से बच निकलते हैं जबकि उनकी जवाबदेही नेताओं से कम नहीं होती। किसी भी घोटाले के उजागर होने के बाद हर बार अफसर ही एक दूसरे को बचाते हैं। गायत्री प्रजापति का ही ताजा मामला देखें तो उन अधिकारियों और कर्मचारियों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए जिनके सामने अवैध निर्माण हुए। जब निर्माण गलत हैं तो केवल उन्हें कराने वाला ही दोषी कैसे हुआ। वे लोग भी उतने ही दोषी हैं जिन्होंने निहित स्वार्थों के चलते गलत काम होने दिया। इसी तरह चंदौली में तैनात रहे उस एआरटीओ का भी मामला है जिसने होटल बना लिए और खेल संघों पर काबिज होकर विदेश की सैर कर आया। इतना बड़ा मायाजाल रचना क्या उस अकेले के बूते का था। उसके शरणदाता पकड़े जाने चाहिए। उनकी सार्वजनिक निंदा होनी चाहिए। जब तक रिटायर हो चुके भ्रष्टों के खिलाफ भी सख्त कार्रवाई नहीं की जाएगी, सुधार की बातें हवा में ही रह जाएंगी। कैसे कोई अफसर करोड़ों कमा लेता है और उसके सीनियर कार्रवाई नहीं कर पाते। भ्रष्टाचार हमारे समाज का घुन है, लेकिन, उससे लड़ने की इच्छाशक्ति का अभाव भी स्पष्ट है।

स्थानीय संपादकीय- उत्तर प्रदेश