फ्लैश---सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि एक चौथाई गरीब बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाए, लेकिन इसका पालन नहीं हो रहा।---नवंबर-दिसंबर में हर शहर के नामी स्कूलों में नर्सरी के दाखिलों के लिए लाइन लगनी शुरू होती है। फरवरी आते-आते अभिभावकों के इंटरव्यू होते हैं और स्कूलों में सूचियां चिपकने लगती हैं। सफल माता-पिता फीस जमा कर लिस्ट के मुताबिक सामान खरीदने लगते हैं जबकि विफल जुट जाते हैं सोर्स-सिफारिश की तलाश में। इसी मुकाम पर ऐसे निजी स्कूल उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बचाते हैं जिनके नाम में कुछ शब्द अंग्रेजी के होते हैं। एक अदद सजा हुआ रिसेप्शन, कुछ खेल के उपकरण, साउंड सिस्टम से गूंजती कोई अंग्रेजी की पोयम अभिभावकों को बड़ा संतोष देती है और प्राथमिकता न होने के बावजूद अभिभावक यहीं एडमिशन करा देता है। इस अफरा-तफरी में माता-पिता के पास यह भी देखने का वक्त नहीं होता कि क्या फीस ले रहे हैं, पढ़ाई का तरीका क्या होगा, कमरे हवादार हैं भी कि नहीं, खेलने का मैदान कहां है और सुबह की प्रार्थना के लिए जगह कितनी है। है भी या नहीं। पहली और दूसरी वरीयता, दोनों तरह के स्कूलों की हकीकत समय बीतने के साथ सामने आने लगती है। निजी स्कूल पूरे साल किसी न किसी मद में पैसा मंगवाते रहते हैं। सभी किस्म के ये स्कूल असली वार करते हैं नए शैक्षिक सत्र की शुरुआत में। मासिक फीस अप्रत्याशित बढ़ती है, शिक्षण शुल्क के मुकाबले अन्य शुल्क कई गुना हो जाते हैं, री-एडमीशन, विकास शुल्क, वाहन फीस जैसी कई मद उग आती हैं। बच्चे को उसी स्कूल में पढ़ाना अभिभावक की मजबूरी है, स्कूल प्रबंधन इसे बखूबी जानता है। एक बार फिर इनकी मनमानी के खिलाफ आवाज उठी है, लखनऊ, इलाहाबाद, वाराणसी आदि शहरों में धरने हो रहे हैं और जिला प्रशासन मध्यस्थता कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि एक चौथाई गरीब बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाए, लेकिन इसका पालन नहीं हो रहा। निजी स्कूलों को हाउस टैक्स में छूट देने के बावजूद सरकार इन पर लगाम नहीं लगा पा रही। ऐसे में नई सरकार से यही अपेक्षा है कि सभी पहलुओं की समीक्षा कर कोई एक रेगुलेटरी कमेटी बनायी जाए। फीस के साथ ही बीच-बीच में वसूली जाने वाली धनराशि, किताब-यूनीफार्म की कीमतों पर नजर रखे। इसके लिए विधान मंडल में कड़ा कानून बनाए, तभी मध्यवर्ग के अभिभावकों को कुछ राहत मिल सकेगी। तभी शिक्षण के नाम पर खुली लूट बंद हो पाएगी। तभी सबको शिक्षा का अभियान सार्थक हो सकेगा।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]