पर्वतीय क्षेत्र के गांवों की तरक्की का रास्ता चकबंदी से गुजरता है। ऐसे में राज्य सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि वह इसके लिए क्या करने जा रही है।
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उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में चकबंदी का मसला फिर से बहस के केंद्र में है। मौजूदा सरकार के नुमाइंदों ने स्वैच्छिक एवं आंशिक चकबंदी को लेकर इसे हवा दी है। आंशिक चकबंदी का आशय ये हुआ कि गांव के जो लोग चकबंदी चाहते हैं, उनके खेतों की चकबंदी कर दी जाए और बाकी को यूं ही छोड़ दिया जाए। सवाल ये कि क्या व्यावहारिक रूप में यह संभव है। उत्तर मिलेगा नहीं। चकबंदी के जानकार इसे बखूबी समझ सकते हैं। अलग-अलग विचार थोपने से इसे लेकर भ्रम की स्थिति भी पैदा हो रही है। समझ में ये नहीं आता कि आखिर चकबंदी को लेकर इतना ऊहापोह क्यों? जबकि अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से लगे राज्य के पर्वतीय क्षेत्र के खाली होते गांवों की खुशहाली का रास्ता चकबंदी से होकर ही गुजरता है। दरअसल, अब तक के परिदृश्य को देखें तो चकबंदी को लेकर सियासत ने कभी भी गंभीरता से कदम उठाने की जहमत नहीं उठाई। फिर चाहे बात अविभाजित उत्तर प्रदेश की रही हो या फिर अब फिर उत्तराखंड की, सूरतेहाल लगभग एक जैसा ही है। उत्तर प्रदेश के दौर में 1970 के दशक में पहाड़ में चकबंदी की पहल हुई, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में यह दम तोड़ गई। उत्तराखंड बनने के बाद भी यहां की सरकारों ने इस अहम सवाल को गंभीरता से लेने की जरूरत महसूस नहीं की। यदि की गई होती तो गुजरे 16 सालों में राज्य में करीब एक लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि बंजर में तब्दील नहीं होती और पलायन के चलते तीन हजार गांव वीरान नहीं होते। ये बात अलग है कि सरकार से लेकर शासन-प्रशासन के नुमाइंदे इससे इत्तेफाक रखते हैं कि पहाड़ में बिखरी जोत के बेहतर प्रबंधन और श्रम शक्ति को जाया होने से बचाने का एकमात्र समाधान चकबंदी ही है। हालांकि, लंबे इंतजार के बाद पिछली सरकार के कार्यकाल में चकबंदी एवं भूमि व्यवस्था विधेयक 2016 विस में पास हो चुका है। इस विधेयक से संबंधित नियमावली बनना शेष है, मगर इसकी गति कहां तक पहुंची ये अबूझ पहेली बना हुआ है। जबकि, हकीकत में इसमें उन संशोधनों पर ही विचार होना है, जो उप्र जोत चकबंदी अधिनियम में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के लिए किए गए थे। इसमें विलंब होना भी अपने आप में अचरजभरा है। अब मौजूदा सरकार के नुमाइंदों की ओर से स्वैच्छिक एवं आंशिक चकबंदी का राग छेड़ दिया गया है। ऐसे में हताशा एवं निराशा का भाव भी लोगों के मन में हैं।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]